Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 282
________________ अध्ययन ११ . २६९ अर्थ - साधु दूसरे रोगी साधु की सेवा ग्लानि रहित होकर प्रसन्न चित्त से करे और रोगी साधु को जिस तरह से समाधि प्राप्त हो उस तरह का कार्य करे।। ३२॥ ... विरए गाम-धम्मेहिं, जे केई जगई जगा । तेसिं अत्तुवमायाए, थाम कुव्वं परिव्वए ।। ३३॥ कठिन शब्दार्थ - गामधम्मेहिं - ग्रामधर्म-शब्दादि विषयों से, विरए - विरत, जगई - जगत् में, जगा - प्राणी, अत्तुवमायाए- आत्मोपमया-आत्मा के समान जान कर, थाम - बल के साथ, कुव्वं - करे । . भावार्थ - साधु शब्दादि विषयों को त्याग कर संसार के प्राणियों को अपने समान समझता हुआ श्रद्धा के साथ संयम का पालन करे । विवेचन - शब्द आदि विषयों को ग्राम धर्म कहते हैं। साधु उनसे निवृत्त हो जाए, अर्थात् मनोज्ञ शब्दादि में राग भाव न करे तथा अमनोज्ञ में द्वेष भाव न करे। जगत् के सभी जीव सुख चाहते हैं कोई भी दुःख नहीं चाहता। अतः उन प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझकर साधु उनको दुःख न देवे, किन्तु उनकी रक्षा के लिए पूरी यतना के साथ संयम का पालन करे।। ३३ ॥ अईमाणं च मायं च, तं परिणाय पंडिए । सव्वमेयं णिराकिच्चा, णिव्वाणं संधए मुणी ॥३४॥ कठिन शब्दार्थ - अइमाणं - अतिमान, परिण्णाय - जान कर, णिराकिच्चा - त्याग कर, संधए - अनुसंधान करे । भावार्थ - विद्वान् साधु अतिमान और माया को जान कर तथा उन्हें त्याग कर मोक्ष का अनुसन्धान करे । विवेचन - गाथा में मान और माया ये दो शब्द दिए हैं, किन्तु उपलक्षण से क्रोध और लोभ का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषाय संयम का विनाश करने वाले हैं। जैसा कि कहा है - .. ."सामण्णमणुचरंतस्स, कसाया जस्स उक्कडा होति। मण्णामि उच्छुपुष्कं व, निष्फलं तस्स सामण्णं॥ अर्थ - संयम का पालन करते हुए, जिस साधु के कषाय प्रबल होते जाते हैं, उसका साधुपना ईख (गन्ना) के फूल के समान निष्फल है। जिस प्रकार घर में कचरा बिना लाए आता है, इसी प्रकार कषाय भी जीव में बिना बुलाए आते हैं। अतः साधु को कषाय को छोड़कर प्रशस्त भावों के साथ संयम का पालन करना चाहिए।। ३४ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338