Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
कठिन शब्दार्थ - आसाविणिं (आसाविणीं)- छिद्र वाली, जाइअंधो - जन्मान्ध, दुरूहिया - चढ़ कर, इच्छइ - चाहता है, पारमागंतुं पार पाना, अंतरा-बीच में ही, विसीय - डूब जाता है। भावार्थ - जैसे जन्मान्ध पुरुष छिद्रवाली नाव पर चढ कर नदी को पार करना चाहता है परन्तु त्रह मध्य में ही डूब जाता है ।
विवेचन - जिस प्रकार सैकड़ों छिद्र वाली नाव पर चढ़ कर जन्मान्ध पुरुष नदी के पार जाना. चाहता है परन्तु नाव में छिद्र होने के कारण उसमें पानी भर जाता है और वह सवारियों के सहित पानी में डूब जाती है। इसी प्रकार ये अन्यमतावलम्बी मोक्ष का सम्यग् मार्ग न जानने के कारण संसार समुद्र ही डूब जाते हैं। अर्थात् संसार समुद्र में परिभ्रमण करते रहते हैं । । ३० ॥ एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्ठी अणारिया । सोयं कसिणमावण्णा, आगंतारो महंब्भयं ॥ कठिन शब्दार्थ - सोयं - स्रोत- आस्रव, कसिणं भागंतारो - प्राप्त करेंगे, महब्भयं महान् भय को ।
३१ ॥
कृत्स्न- संपूर्ण, आवण्णा
२६८
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भावार्थ - इसी तरह मिथ्यादृष्टि अनार्य्य कोई श्रमण पूर्ण रूप से आस्रव का सेवन करते हैं, वे महान् भय को प्राप्त होंगे ।
विवेचन - ऊपर की गाथा में छिद्र वाली नाव का दृष्टांत दिया है, इसी तरह ये शाक्य आदि अन्यमतावलम्बी आस्रवों का निरोध न करने के कारण बारबार संसार में परिभ्रमण करते हुए नरकादि के दुःखों को भोगते हैं ।
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इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेइयं ।
तरे सोयं महाघोरं, अत्तत्ताए परिव्वए ।। ३२ ॥
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कठिन शब्दार्थ - धम्मं धर्म को, आदाय स्वीकार कर, तरे पारं करे, सोयं - स्रोत- संसार नगरको, अत्तत्ता - आत्म कल्याण के लिए, परिव्वए संयम पालन करे ।
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सेवन कर,
भावार्थ - काश्यपगोत्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के कहे हुए इस धर्म को प्राप्त कर बुद्धिमान् पुरुष महाघोर संसार सागर को पार करे तथा आत्मकल्याण के लिये संयम का पालन करे ।
विवेचन - राग द्वेष के विजेता वीतराग भगवान् का कहा हुआ श्रुत चारित्र रूप धर्म मोक्ष का मार्ग है। संसार सागर को तिरने के लिए वीतरागों के धर्म को स्वीकार करना चाहिए। कहीं-कहीं उत्तरार्ध का पाठ इस प्रकार मिलता है कि
"कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स अगिलो समाहिए "
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