Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
अध्ययन ९
एयमट्टं सपेहाए, परमाणुगामियं ।
णिम्ममो णिरहंकारो, चरे भिक्खू जिणाहियं ॥ ६ ॥
इस विषय में कालसौकरिक कसाई के पुत्र सुलस का दृष्टान्त दिया गया है- यथा राजा श्रेणिक के समय कालसौकरिक नाम का एक कसाई था । वह प्रतिदिन पांच सौ भैंसों को मारता था । राजा श्रेणिक ने उससे हिंसा बन्द करवाने का प्रयत्न किया किन्तु उसमें उसको सफलता नहीं मिली तब अभयकुमार ने कालसौकरिक के पुत्र सुलस के साथ मित्रता की। तो वह श्रावक बन गया और जीव हिंसा का त्याग कर दिया। जब कालसौकरिक कसाई मृत्य को प्राप्त हो गया तब उनके कुटुम्ब परिवार वालों ने सुलस को अपने पिता सम्बन्धी खानदानी जीव हिंसा रूप धन्धा करने की प्रेरणा दी। सुलस ने उसे स्वीकार नहीं किया तब परिवार वालों ने कहा कि तुम हिंसा के पाप से क्यों डरते हो । हम सब उस पाप का हिस्सा बटा लेंगे। तब हाथ में कुल्हाड़ी लेकर सुलस ने अपने पैर के ऊपर चोट मारी जिससे खून बहने लगा तब उसने अपने परिवार वालों से कहा कि आप मेरी इस पीड़ा को बटा लो । तब उन्होंने लाचार होकर कहा कि आपकी पीड़ा तो आपको ही भोगनी पड़ेगी। तब सुलस ने कहा कि जब आप लोग इस लोक सम्बन्धी प्रत्यक्ष पीड़ा को भी नहीं बटा सकते तो परलोक में पाप का फल भोगते समय उसका हिस्सा बटा लेंगे इसका विश्वास कैसे किया जा सकता है ? अतः मैं जीव हिंसा रूप कार्य नहीं करूँगा ऐसा कहकर उसने जीव हिंसा नहीं की और अपनी प्रतिज्ञा का पालन किया ।
कठिन शब्दार्थ एवं इस अट्ठ - अर्थ को, सपेहाए समझ कर, परमट्ठाणुगामियं - परमार्थ की ओर ले जाने वाले, णिम्ममो - ममता रहित, णिरहंकारो - अहंकार रहित, जिणाहियंजिन भाषित तत्त्व - जिनवाणी का, चरे आचरण करे ।
-
-
Jain Education International
२२५
भावार्थ अपने किये हुए कर्मों से सांसारिक दुःख भोगते हुएं प्राणी की रक्षा करने के लिये कोई भी समर्थ नहीं है तथा मोक्ष या संयम का कारण सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र है इन बातों को जानकर साधु ममता और अहङ्कार रहित होकर जिनभाषित धर्म का अनुष्ठान करे ।
विवेचन- 'परम' शब्द का अर्थ है, मोक्ष या संयम । उसका कारण है ज्ञान, दर्शन और चारित्र । बुद्धिमान पुरुष इन बातों को अच्छी तरह विचार कर संयम में पुरुषार्थ करे । बाह्य और आभ्यन्तर वस्तुओं में ममता न करे एवं पहले के ऐश्वर्य और जाति मद से उत्पन्न तथा स्वाध्याय तपस्या आदि से उत्पन्न अहंकार भी न करे। किन्तु राग द्वेष रहित होकर तीर्थङ्कर भगवन्तों द्वारा आचरित एवं कथित मार्ग का अनुसरण करे ।
चिच्या वित्तं च पुत्ते य, णाइओ य परिग्गहं ।
चिच्वा णं अंतगं सोयं, णिरवेक्खो परिव्वए ॥ ७ ॥
1000000000000
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org