Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन ९
२२७ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 होने वाले जीव उद्भिज कहलाते हैं जैसे खंजरीट, टिड्डी, पतंग आदि। इन सब जीवों के भेदों को जानकर मुनि उनकी रक्षा करने में निरन्तर सावधान रहे। . एएहिं छहिं काएहि, तं विजं परिजाणिया ।
मणसा काय-वक्केणं, णारंभी ण परिग्गही ॥९॥
कठिन शब्दार्थ - परिजाणिया - जाने, मणसा - मन से कायवक्केणं - वचन और काया से, ण- नहीं, आरंभी - आरंभ करे ।,
भावार्थ - विद्वान् पुरुष पूर्वोक्त इन छह ही कायों को जीव समझ कर मन, वचन और काया से इनका आरम्भ और परिग्रह न करे।
विवेचन - गाथा नं. ८ के अर्थ में और विवेचन में छह काय जीवों का वर्णन कर दिया गया है। उन त्रस और स्थावर जीवों के सक्षम, बादर, अपर्याप्त और पर्याप्त भेदों को जान कर इनका आरम्भ न
करे तथा इन पर ममत्व भाव भी न रखे अर्थात् विद्वान् पुरुष ज्ञ परिज्ञा से इनके स्वरूप को जानकर • प्रत्याख्यान परिज्ञा से उनके आरम्भ और परिग्रह का त्याग करे ।
मुसावायं बहिद्धं च, उग्गहं च अजाइया । सत्थादाणाइं लोगंसि, तं विजं परिजाणिया ।१०।
कठिन शब्दार्थ- मुसावायं - मृषावाद, बहिद्धं- बहिद्ध -बाहरी वस्तु (मैथुन और परिग्रह), उग्गहं - अवग्रह, अजाइया - अयाचित, सत्थ - शस्त्र, आदाणाई - आदान-कर्म बंध के कारण, विज-विद्वान् ।
भावार्थ - झूठ बोलना, मैथुन सेवन करना, परिग्रह ग्रहण करना और अदत्तादान लेना ये सब लोक में शस्त्र के समान और कर्म बन्ध के कारण हैं इसलिये विद्वान् मुनि इन्हें ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग करे । ... विवेचन - इस गाथा में मुनि के पांच महाव्रतों का कथन किया गया है । 'सत्थादाणाई' शब्द से
अहिंसा व्रत रूप पहला महाव्रत । मुसावायं' शब्द से मृषावाद अर्थात् झूठ का सर्वथा त्याग रूप दूसरा महाव्रत 'उग्गहं अजाइया' (अवग्रहं अयाचितं) शब्द से अदत्तादान विरमण रूप तीसरा महाव्रत लिया गया है और 'बहिद्धं' शब्द से मैथुन विरमण रूप चतुर्थ महाव्रत और परिग्रह विरमण रूप पांचवां महाव्रत लिया गया है । अर्थात् बहिद्धादान शब्द में दो महाव्रतों का ग्रहण है । बहिद्धादान' शब्द का अर्थ है बाहरी वस्तु को लेना । कामवासना की वस्तु स्त्री आदि तथा हिरण्य सुवर्ण आदि परिग्रह की वस्तु भी बाहरी है । इसलिये बाहरी वस्तु को ग्रहण करने रूप व्रत को बहिद्धादान इस एक शब्द से लिया गया है । यही बात ठाणाङ्ग सूत्र के चौथे ठाणे के प्रथम उद्देशक में कही गयी है यथा - .
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