Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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होलावायं सहीवायं, गोयावायं च णो वए ।
तुमं तुमंत अमणुण्णं, सव्वसो तं ण वत्तए ॥ २७ ॥
कठिन शब्दार्थ - होलावायं - होलावाद - निष्ठुर तथा नीच संबोधन से पुकारना, सहीवायं सखिवाद - मित्र आदि कहना, गोयावायं - गोत्रवाद - गोत्र से संबोधन करना, तुमं तुमंति- तू-तू कहना, अमणुण्णं - अमनोज्ञ वचन, वत्तए - कहे ।
भावार्थ - साधु निष्ठुर तथा नीच सम्बोधन से किसी को न बुलावे तथा किसी को " हे मित्र ! " कहकर न बोले एवं हे वशिष्ठ गोत्रवाले ! हे काश्यप गोत्रवाले ! इत्यादि रूप से खुशामद के लिये गोत्र का नाम लेकर किसी को न बुलावे तथा अपने से बड़े को 'तू' कहकर न बुलावे एवं जो वचन दूसरे को 'बुरा लगे वह, साधु सर्वथा न बोले ।
विवेचन किसी भी व्यक्ति को हल्के शब्दों से सम्बोधित नहीं करना चाहिए तथा किसी को प्रसन्न करने के लिये खुशामदी के वचन भी साधु को नहीं बोलना चाहिए ।। २७ ।। कुसीले समा भिक्खू, णेव संसग्गियं भए ।
सुहरूवा तत्थुवस्सग्गा, पडिबुज्झेज्ज ते विऊ ॥ २८ ॥
कंठिन शब्दार्थ - अकुसीले - अकुशील, संसग्गियं - संगति, सुहरूवा उवस्सग्गा - उपसर्ग, पडिबुझेज्ज - समझे ।
अध्ययन ९
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भावार्थ - साधु स्वयं कुशील न बने और कुशीलों के साथ सङ्गति भी न करे क्योंकि कुशीलों
की सङ्गति में सुखरूप उपसर्ग वर्तमान रहता है, यह विद्वान् पुरुष जाने ।
विवेचन शील का अर्थ है आचार, आचरण । जिसका आचरण बुरा हो उसे कुशील कहते हैं । जिसने ज्ञान दर्शन चारित्र को अपने पास न रख कर दूर रख दिया है उसे पासत्थ (पार्श्वस्थ ) कहते हैं । जो संयम पालन करते हुए संयम की क्रियाओं से थक गया है अतएव प्रतिलेखना आदि कार्यों में प्रमाद करता है उसे अवसन्न कहते हैं । शुद्ध संयम पालन करने वाले मुनि को चाहिए कि वह इन कुशील आदि की सङ्गति न करे । इनके संसर्ग से संयम में दोष लगने की सम्भावना रहती है क्योंकि ये कुशील आदि पुरुष कहते हैं कि, "प्रासुक जल से हाथ पैर और दांत आदि को धोने में क्या दोष है ?"
इस प्रकार कुशील पुरुषों का कथन सुनकर अल्प पराक्रमी जीव संयम में शिथिल बन जाते हैं अतः विवेकी पुरुष इन सब बातों को जानकर कुशील, पासत्थ, अवसन्न आदि का संसर्ग न करे । णण्णत्थ अंतराएणं, परगेहे ण णिसीयए ।
गाम - कुमारियं किड्डु, णाइवेलं हसे मुणी ।। २९॥
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सुख रूप,
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