Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 से, जं - जो, कडं - कृत-किया है, तारिसं - वैसे, अण्णपाणं - आहार पानी को, सुसंजए - सुसंयत ।
भावार्थ - जो आहार भूतों को पीड़ा देकर तथा साधुओं को देने के लिये किया गया है उसे उत्तम साधु ग्रहण न करे ।
विवेचन - गाथा में भूत शब्द दिया है, इससे प्राण, भूत, जीव, सत्व चारों का ग्रहण कर लेना चाहिए। यथा -
प्राणाः द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः। जीवाः पञ्चेन्द्रियाः प्रोक्ताः, शेषाः सत्त्वाः उदीरिताः ॥
अर्थ - बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय को प्राण कहते हैं। वनस्पति को भूत कहते हैं, पञ्चेन्द्रिय को जीव कहते हैं तथा पृथ्वीकाय, अप्काय, तेऊकाय, वायुकाय को सत्त्व कहते हैं ।
उपरोक्त प्राणियों की हिंसा करके जो आहार, वस्त्र, पात्र, मकान आदि बनाये जाते हैं वे सब आधाकर्मी दोष से दूषित है। अतः शुद्ध संयम का पालन करने वाले मुनि को इन सब वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से ही मोक्ष मार्ग का पालन होता है।। १४ ॥
पूईकम्मं ण सेविग्जा, एस धम्मे वुसीमओ। जे किंचि अभिकंखेज्जा, सव्वसो तं ण कप्पए ।। १५॥
कठिन शब्दार्थ - पूईकम्मं - पूतिकर्म का, सेविजा - सेवन करे, वुसीमओ - संगमी का, अभिकंखेजा - शंकित-शंका युक्त हो, कप्पए - कल्पता है ।
भावार्थ - आधाकर्मी आहार के एक कण से भी मिला हुआ आहार साधु न लेवे । शुद्ध संयम पालने वाले साधु का यही धर्म है तथा शुद्ध आहार में यदि अशुद्धि की शङ्का हो जाय तो उसे भी साधु ग्रहण न करे ।
विवेचन - आधाकर्मी आदि दोषों से दूषित आहार का एक कप भी जिसमें मिल गया हो उसको पूतिकर्म दोष कहते हैं। साधु ऐसे आहारादि का सेवन न करे जिस आहारादि में थोड़ी-सी भी शंका से युक्त हो वह भी साधु के ग्रहण करने योग्य नहीं है ॥
हणंतं णाणुजाणेज्जा, आय-गुत्ते जिइंदिए । ठाणाई संति सड्ढीणं, गामेसु णगरेसु वा ।। १६॥
कठिन शब्दार्थ - णाणुजाणेजा - अनुमति न देवे, आयगुत्ते - आत्मगुप्त, जिइंदिए - जितेन्द्रिय, ठाणाई - स्थान, सड्डीणं- श्रद्धालुओं के ।
भावार्थ - श्रावकों के ग्रामों में या नगरों में साधुओं को रहने के लिये स्थान प्राप्त होता है अतः
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