Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 278
________________ अध्ययन ११ २६५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 विवेचन - राजा, महाराजा, सेठ, साहूकार आदि कोई धनवान् पुरुष, यदि कूप खुदवाना एवं तालाब खुदवाना, अन्नशाला व जलशाला बनवाना आदि कार्यों के लिए उद्यत होकर साधु से पुण्य का होना या न होना पूछे तो मोक्षार्थी मुनि को क्या कहना, यह बात शास्त्रकार इस गाथा में बताते हैं। ___ अन्नशाला और जलशाला आदि दानों में पुण्य होता है, यदि साधु ऐसा कहे तो इनको बनाने में जीवों का विनाश होता है। इसलिए उपरोक्त दानों में पुण्य होता है, ऐसा साधु न कहे । यदि इन दानों में पुण्य नहीं होता है। ऐसा साधु कहे तो दानार्थी जीवों के लाभ में अन्तराय पड़ती है. इसलिए मोक्षार्थी पुरुष उपरोक्त दानों में पुण्य या पाप होना न कहे किन्तु किसी के पूछने पर मौन धारण करें, यदि कोई विशेष आग्रह करें तो साधु को कहना चाहिए कि हम लोग आरंभ परिग्रह के सर्वथा त्यागी साधु हैं, इसलिए उपरोक्त विषय में हम कुछ नहीं कहते हैं। णिव्वाणं परमं बुद्धा, णक्खत्ताण व चंदिमा। . तम्हा सदा जए दंते, णिव्वाणं संधए मुणी ।। २२॥ कटिन शब्दार्थ - परमं - परम-श्रेष्ठ प्रधान, णक्खत्ताण - नक्षत्रों में, जए - प्रयत्नशील, दंते - दान्त-जितेन्द्रिय, संधए - संधान (साधन) करे । - .. भावार्थ - जैसे चन्द्रमा सब नक्षत्रों में प्रधान है इसी तरह मोक्ष को सबसे उत्तम जानने वाला पुरुष सबसे प्रधान है अतः मुनि सदा प्रयत्नशील और जितेन्द्रिय होकर मोक्ष का साधन करे । विवेचन - अव्याबाध सुख को निर्वाण कहते हैं उसको सबसे प्रधान मानने वाले परलोकार्थी तत्त्वज्ञ पुरुष निर्वाण वादी होने के कारण सबसे प्रधान है, जैसे अश्विनी आदि नक्षत्रों में सौम्यता, प्रमाण, आयु और प्रकाश रूप गुणों के द्वारा चन्द्रमा प्रधान है। मोक्ष सबसे श्रेष्ठ है, इसलिए साधु इन्द्रिय तथा मन को वश में करके सदा मोक्ष के लिए प्रयत्न शील रहे। वुज्झमाणाण पाणाणं, किच्चंताणं सकम्मुणा । . आघाइ साहु तं दीवं, पइटेसा पवुच्चइ ॥२३॥ कठिन शब्दार्थ - वुण्झमाणाण - प्रवाह में बहते हुए, किच्चंताणं - कष्ट पाते हुए, आघाइबताते हैं, दीवं - द्वीप, पइट्ठा - प्रतिष्ठा-मोक्ष का साधन । . भावार्थ - मिथ्यात्व कषाय आदि तेज धारा में बहे जाते हुए तथा अपने कर्म के वशीभूत होकर कष्ट पाते हुए प्राणियों को विश्राम देने के लिये सम्यग्दर्शन आदि द्वीप तीर्थंकरों ने बताया है । ज्ञानियों का कथन है कि - सम्यग्दर्शन आदि के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है । आयगुत्ते सया दंते, छिण्णसोए अणासवे । जे धम्मं सुद्धमक्खाइ, पडिपुण्ण-मणेलिसं ।। २४॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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