Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 263
________________ २५० . . श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ भावार्थ - जो साधु स्त्रियों के साथ मैथुन नहीं करता है तथा परिग्रह नहीं करता है एवं नाना प्रकार के विषयों में रागद्वेष रहित होकर जीवों की रक्षा करता है वह निःसन्देह समाधि को प्राप्त है। विवेचन - मैथुन के तीन प्रकार कहे गये हैं - यथा- देव सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी और तिर्यञ्च सम्बन्धी इन तीन प्रकार के मैथुन से जो निवृत्त हैं। यहाँ मैथुन शब्द तो उपलक्षण है इससे प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान और परिग्रह इन चारों का भी ग्रहण हो गया है । अर्थात् पञ्च महाव्रतधारी मुनि किसी भी वस्तु में रागद्वेष न करता हुआ तथा मूल गुण और उत्तर गुणों में जो निरन्तर सावधान रहता है, वह भाव समाधि को प्राप्त होता है अर्थात् मुक्ति को प्राप्त होता है ॥ १३ ॥ अरइं रइं च अभिभूय भिक्खू, तणाइफासं तह सीयफासं ।. .. उण्हं च दंसं चाहियासएग्जा, सुब्भिं व दुब्भिं व तितिक्खएग्जा ॥ १४ ॥ कठिन शब्दार्थ - अरई - अरति को, रई - रति को, अभिभूय - तिरस्कृत करके, अहियासएज़ासहन करें, तितिक्खएज्जा - समभाव पूर्वक सहन करे। भावार्थ - साधु संयम में खेद और असंयम में प्रेम को त्याग कर तृण आदि तथा शीत, उष्ण, दंशमशक और सुगन्ध तथा दुर्गन्ध को सहन करे। . . . . विवेचन - वह भाव साधु परमार्थदर्शी है जो शरीर आदि से निस्पृह होकर आये हुए शीत, उष्ण, दंशमशक, भूख, प्यास आदि परीषहों को समभाव पूर्वक निर्जरा के लिये सहन करता है। इस गाथा में 'अहियासएज्जा और तितिक्खएजा' ये दो शब्द दिये हैं जिसमें अहियासएजा का अर्थ है सहन करना। संसार में रहता प्राणी लोभ की प्रवृत्ति आदि कारणों से अपने लिये प्रयुक्त किये गये अपमान जनक हलके शब्दों को सहन करता है। किन्तु सहन करने में वैसी सकाम निर्जरा नहीं होती। इसीलिए यहाँ शास्त्रकार ने दूसरा शब्द दिया है - 'तितिक्खएजा' जिसका अर्थ है प्रतीकार करने की शक्ति होते हुए भी उसका प्रतीकार नहीं करे। किन्तु समभाव पूर्वक सहन करे वह भी केवल मोक्ष प्राप्ति के अत्यन्त प्रबल कारण मात्र निर्जरा के लिये सहन करे। यही बात’ श्री वाचक मुख्य उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्थ सूत्र के ९वें अध्ययन में कहीं है - 'मार्गाच्यवन निर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः ॥८॥ अर्थ - संयम मार्ग में स्थिर रहने के लिये और निर्जरा के लिये मुनियों को जो सहन करने चाहिये उन्हें परीषह कहते हैं ॥ ८ ॥ ।। १४ ॥ गुत्तो वइए य समाहि-पत्तो, लेसं समाहट्ट परिवएज्जा । गिहं ण छाए ण वि छायएज्जा, संमिस्स-भावं पयहे पयासु ॥ १५ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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