Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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२५४. .
सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
भावार्थ - सर्वज्ञोक्त मार्ग से चलने वाला मुनि झूठ न बोले । झूठ बोलने का त्याग सम्पूर्ण भावसमाधि और मोक्ष कहा गया है । इसी तरह साधु दूसरे व्रतों में भी दोष न लगावें और दूसरे के द्वारा भी दोष लगाने की प्रेरणा न करे एवं दोष लगाते हुए पुरुष को अच्छा न जाने ।
विवेचन - गाथा में 'अत्तगामी' शब्द दिया है। जिसका अर्थ है आप्तगामी। प्रश्न - आप्त किसे कहते हैं ? उत्तर - "अभिधेय वस्तु, यथावस्थितं। यो जानीते यथाज्ञानं च। अभिधते स आप्तः।"
अर्थ - वस्तु का जैसा शुद्ध स्वरूप है वैसा ही जो जानता है और जैसा जानता है वैसा ही कहता है। उसे 'आप्त' कहते हैं। आप्त' का अर्थ है - 'सर्वज्ञ'। उसके द्वारा उपदेश किये हुए मार्ग से चलने वाले पुरुष को आप्तगामी कहते हैं। . गाथा में 'मुसं' शब्द दिया है यह तो मात्र उपलक्षण है। इससे प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह इन पांचों पापों का तीन करण तीन योग से मुनि को त्याग कर देना चाहिये। तब ही मुनिपना है। यही सम्पूर्ण भाव समाधि है और इसी से निर्वाण (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। .....
सुद्धे सिया जाए ण दूसएज्जा, अमुच्छिए ण य अज्झोववण्णे ।
धिइमं विमुक्के ण य पूयणट्ठी, ण सिलोयगामी य परिव्वएज्जा ॥ २३ ॥ - कठिन शब्दार्थ - सुद्धे - शुद्ध, जाए - जात-लब्ध, दूसएजा - दूषित करे, अमुच्छिए - अमूछित, अग्झोववण्णे - अत्यन्त आसक्त, धिइमं - धृतिमान्, विमुक्के - परिग्रह से मुक्त, पूयणट्ठी- पूजा का अर्थी, सिलोयगामी - श्लाघा का कामी, परिव्यएजा - परिव्रजन- शद्ध संयम का पालन करे । .
भावार्थ - उद्गमादि दोषरहित शुद्ध आहार प्राप्त होने पर साधुरागद्वेष करके चारित्र को दूषित न करे तथा उत्तम आहार में मूर्च्छित और बार बार उसका अभिलाषी न बने । साधु धीरतावान् बने और परिग्रह से मुक्त होकर रहे तथा वह अपनी पूजा प्रतिष्ठा और कीर्ति की इच्छा न करता हुआ शुद्ध संयम का पालन करे।
विवेचन - साधु को पांच समिति का शुद्ध पालन करना चाहिये। उसमें तीसरी समिति का नाम है एषणा समिति। इसके ४२ दोष बतलाये गये हैं। यथा - उद्गम के १६, उत्पादना के १६, ग्रहणैषणा के १०। इन दोषों से रहित शुद्ध आहार का मिलना बड़ा कठिन है। ऐसा शुद्ध आहार मिल जाने पर भी आहार करते समय मुनि को रसलोलुपता के कारण अपनी तरफ से पांच दोष फिर लग सकते हैं यथा - इंगाल, धूम, संयोजना, अकारण और अपरिमाण। इन दोषों से बचने के लिए शास्त्रकार फरमाते हैं -
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