Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 000000000000000000000RROOMMONOMORRO000000000000000000000000000 को, कासवेण - काश्यप गोत्रिय भगवान् ने, पवेइयं - कहा हुआ, जं - जिसे, आदाय - प्राप्त कर, समुईसमुद्र को, ववहारिणो - व्यवहार करने वाले । . भावार्थ - श्री सुधर्मास्वामी, अपने शिष्य वर्ग से कहते हैं कि - मैं भगवान् महावीर स्वामी का कहा हुआ मार्ग क्रमशः बताता हूँ तुम उसे सुनो । जैसे व्यवहार करने वाले पुरुष समुद्र को पार करते हैं इसी तरह इस मार्ग का आश्रय लेकर बहुत जीवों ने संसार को पार किया है । . .
विवेचन - भगवान् महावीर स्वामी के आगमों में अनेक नाम हैं यथा - १. वर्द्धमान २. श्रमण ३. महावीर ४. विदेह ५. विदेहदत्त ६. ज्ञातपुत्र ७. वैशालिक ८. मुनि ९. माहन १०. सन्मति ११. महत्ति वीर १२. अन्त्यकाश्यप १३. देवार्य, १४. ज्ञातनन्दन १५. त्रिशला तनय १६. सिद्धार्थ नन्दन आदि और भी नाम हैं। ___इस गाथा में भगवान् महावीर के लिये 'काश्यप' शब्द दिया है। इसी सूत्र के तीसरे अध्ययन के तीसरे उद्देशक में तथा दशवैकालिक सूत्र के चौथे अध्ययन में भगवान् को 'काश्यप' शब्द से विशिष्ट करके सम्बोधित किया है। क्योंकि भगवान् का गोत्र काश्यप था। भगवान् काश्यप गोत्र के होकर अन्तिम तीर्थंकर थे। इसलिये महाकवि धनञ्जय ने अपने धनञ्जय माला कोश में भगवान् को . अन्त्यकाश्यप कहा है।
भगवान् महावीर स्वामी के कहे हुए मार्ग को सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी आदि से कहते हैं।
प्रश्न - वह मार्ग कैसा है ?
उत्तर - जैसे कायर पुरुष युद्ध में जाना तो दूर किन्तु युद्ध के नाम से ही घबराने लगता है इसी तरह से यह मार्ग अल्प शक्ति वाले पुरुष के लिये महान् घोर अर्थात् महान् पयदायक हैं किन्तु शूरवीर - पुरुष के लिये यह बड़ा सरल है। इसको धारण करके अनेक महापुरुष इस संसार सागर को तिर गये हैं जैसे कि व्यापार करने वाले नावो-वणिक समुद्र को पार कर जाते हैं। इसी तरह अव्यावाध और अनन्त सुख की इच्छा करने वाले मुनि महात्मा इस दुस्तर संसार सागर को पार कर जाते हैं।
अतरिसु तरंतेगे, तरिस्संति अणागया । तं सोच्चा पडिवक्खामि, जंतवो तं सुणेह मे ॥६॥
कठिन शब्दार्थ - अतरिंसु- तिर गये, तरंति - तिरते हैं, तरिस्संति - तिर जायेंगे, अणागया - अनागत-भविष्य में, एगे -कितनेक, पडिवक्खामि - कहूँगा।
भावार्थ - श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य वर्ग से कहते हैं कि- तीर्थंकर के बताये हुए मार्ग से चलकर पूर्वकाल में बहुत जीवों ने संसार सागर को पार किया है तथा वर्तमान में भी करते हैं और
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