Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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करता है उसके साथ परिचय न करे तथा निर्जरा की प्राप्ति के लिये शरीर को कृश करे और शरीर की परवाह न रखता हुआ शोक को छोड़कर संयम पालन करे ।
विवेचन- आधाकर्मी आहार आदि कर्म बन्ध एवं दुर्गति का कारण है। आधाकर्मी आहार आदि का सेवन करने वाले मुनियों के साथ लेना देना, साथ रहना, बातचीत करना, परिचय करना आदि व्यवहार भी न करे । शुद्ध आहार का सेवन भी सदा न करे किन्तु तपस्या के द्वारा शरीर को कृश (दुर्बल) करे और शरीर की दुर्बलता को देख कर शोक चिन्ता भी नहीं करे। तपस्या से कर्मों की भारी निर्जरा होती है।
एगत्तमेयं अभिपत्थरज्जा, एवं पमोक्खो ण मुसं ति पासं ।
एसप्पमोक्खो अमुसे वरे वि, अकोहणे सच्च - रए तवस्सी ।। १२ ॥
कठिन शब्दार्थ - एगत्तं एकत्व, एवं प्रमोक्ष, अमुसे - अमृषा, वरे श्रेष्ठ, अकोहणे तपस्वी ।
यह अभिपत्थरज्जा- भावना करे, पमोक्खो अक्रोध-क्रोध रहित, सच्चरए - सत्यरत, तवस्सी -
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अध्ययन १०
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भावार्थ साधु एकत्व की भावना करे क्योंकि एकत्व की भावना से ही निःसङ्गता को प्राप्त होता है । यह एकत्व की भावना ही उत्कृष्ट मोक्ष है अतः जो इस भावना से युक्त होकर क्रोध नहीं करता है तथा सत्य भाषण और तप करता है वही पुरुष सबसे श्रेष्ठ है ।
विवेचन - मुनि एकत्व की इच्छा करे। दूसरे की सहायता की इच्छा न करे। क्योंकि जन्म, जरा, मरण, रोग और शोक से परिपूर्ण इस जगत् में अपने किये हुए कर्मों से दुःख भोगते हुए प्राणी की रक्षा करने में कोई भी समर्थ नहीं है। जैसा कि कहा है
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." एगो मे सासओ अप्पा, णाणदंसणसंजुओ ।
सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥ १ ॥ "
ज्ञान दर्शन से युक्त मेरा एक आत्मा ही शाश्वत है बाकी के सभी पदार्थ बाहरी हैं और वे कर्म के कारण संयोग को प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार साधु सदा एकत्व की भावना करता रहे। एकत्व की भावना करने से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है ॥ १२ ॥
इत्थी या आरय मेहुणाओ, परिग्गहं चेव अकुत्र्वमाणे ।
उच्चावसु विसएसु ताई, णिस्संसयं भिक्खू समाहि पत्ते ।। १३ ॥ कठिन शब्दार्थ - आरय अरत निवृत्त-विरत, उच्चावएसु- उच्च और अवच अर्थात् ऊंचा और नीचा नाना प्रकार के, विसएस विषयों में, ताई रक्षक, णिस्संसयं निःसंदेह, समाहि - समाधि को, पत्ते प्राप्त होता है ।
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