Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
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विवेचन - सब दिशाओं में फैलने वाली प्रशंसा को कीर्ति कहते हैं, किसी एक दिशा में फैलने वाली प्रशंसा को यश (वर्ण) कहते हैं, कुछ क्षेत्र में फैलने वाले यश को शब्द कहते हैं, उसी नगर में फैलने वाले यश को श्लोक कहते हैं । देवेन्द्र, असुरेन्द्र, चक्रवर्ती बलदेव, वासुदेव आदि राजा, महाराजाओं द्वारा तथा सेठ साहुकारों आदि द्वारा जो नमस्कार किया जाता है उसे वन्दना कहते हैं तथा इन लोगों द्वारा सत्कार सन्मान सहित वस्त्र आदि दिये जाते हैं, उसे पूजा कहते हैं । मुनि मन से भी इन सब की चाहना न करे ।
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जेणेह णिव्वहे भिक्खू, अण्णं-पाणं तहाविहं ।
अणुप्पयाण-मण्णेसिं, तं विज्जं परिजाणिया ।। २३ ॥
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कठिन शब्दार्थ - जेण जिससे, इह इस संसार में णिव्वहे नष्ट हो अणुप्पयाणं - प्रदान करना, अण्णेसिं - दूसरो को ।
भावार्थ - इस जगत् में जिस अन्न या जल के ग्रहण करने से साधु का संयम नष्ट हो जाता है वैसा अन्न जल साधु स्वयं ग्रहण न करे तथा दूसरे साधु को भी न देवे क्योंकि वह संसार भ्रमण का कारण है अतः विद्वान् मुनि इसका त्याग कर दे ।
विवेचन - साधु किसी भी परिस्थिति में अर्थात् दुर्भिक्ष और रोगादि के समय भी अशुद्ध आहार पानी को ग्रहण न करे तथा दूसरे साधु को भी न देवे क्योंकि अशुद्ध आहार पानी संयम का नाश करने वाला होता है ।
एवं उदाहु णिग्गंथे, महावीरे महामुनी ।
अनंत - णाण- दंसी से, धम्मं देसितवं सुयं ।। २४॥
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कठिन शब्दार्थ - अणंतणाणदंसी - अनंतज्ञान दर्शन से युक्त, देसितवं उपदेश दिया, सुयं - श्रुत, धम्मं धर्म का ।
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भावार्थ - अनन्त ज्ञान तथा दर्शन से युक्त एवं बाहर और भीतर की ग्रन्थि रहित महामुनि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने इस चारित्र तथा श्रुतरूप धर्म का उपदेश दिया है ।
विवेचन - क्षेत्र (खुली जमीन), वास्तु (ढ़की जमीन, महल, मकान बंगला आदि), हिरण्य (चांदी) सुवर्ण (सोना), द्विपद (नौकर चाकर आदि), चतुष्पद (हाथी घोड़ा · आदि) कुप्य (कुविय - घर बिखेरी का सामान टेबल, कुर्सी, मेज, सीरख, पथरणा आदि ) ये बाह्य ग्रन्थि (बाह्य परिग्रह) कहलाती है । मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, यह चौदह आभ्यन्तर ग्रन्थि (परिग्रह) कहलाती है । दोनों प्रकार की ग्रन्थि जिसमें न हो, वह निर्ग्रन्थ कहलाता । ऐसे निर्ग्रन्थ अनन्त ज्ञानी अनन्त दर्शी श्रमण भगवान् महावीर
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