Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन ५ उद्देशक २
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विवेचन - टीकाकार ने उपर्युक्त अर्थ किया है, पर प्रसंग के अनुसार निम्न अर्थ भी प्रतीत होता है-"ऊँचे उछलने पर वे छिन्न-भिन्न दशा को प्राप्त होकर शोक से करुण विलाप करते हैं । औंधे सिर नीचे आते हुए उन प्राणियों को, नरकपाल छेदते हैं और तीक्ष्ण लोह शस्त्रों के द्वारा ऊपर उछालते हैं ।"
समूसिया तत्थ विसूणियंगा, पक्खीहि खजति अयोमुहेहिं । संजीवणी नाम घिरट्टिईया, जंसि पया हम्मइ पावचेया ॥९॥
कठिन शब्दार्थ - विसूणियंगा - चमडी उखेडे हुए, अयोमुहेहिं - लोह का मुख वाले, पया - प्रजा, हम्मइ - मारी जाती है, पावचेया - पाप चित्त वाले । ।
भावार्थ - उस नरक में अधोमुख करके लटकाये हुए तथा शरीर का चमडा उखाड लिये हुए प्राणी लोहमुख वाले पक्षियों के द्वारा खाये जाते हैं । नरक की भूमि संजीवनी कहलाती है क्योंकि मरण के समान कष्ट पाकर भी प्राणी आयु शेष रहने पर मरते नहीं हैं तथा उस नरक में गये हुए प्राणियों की आयु भी बहुत होती है। पापी जीव उस नरक में मारे जाते हैं ।
तिक्खाहि सूलाहि णिवाययंति, वसोगयं सावययं व लद्धं । ते सूलविद्धा कलुणं थणंति, एगंत दुक्खं दुहओ गिलाणा ॥ १० ॥
कठिन शब्दार्थ - णिवाययंति - वेध करते हैं, मारते हैं, वसोगयं - वश में आये हुए, सावययंस्वापद जानवर, लद्धं- प्राप्त हुआ, सूल विद्धा - शूलों से विद्ध, एगंत दुक्खं - एकान्त दुःख वाले, गेलाणा - ग्लान, णिवाययंति (अभितावयंति)- पीडित करते हैं ।
भावार्थ - वश में आये हुए जङ्गली जानवर के समान नैरयिक जीव को पाकर परमाधार्मिक तीक्ष्ण शूल से वेध करते हैं भीतर और बाहर आनन्द रहित एकान्त दुःखी नारकी जीव, करुण क्रन्दन करते हैं। - सया जलं णाम णिहं महंतं, जंसि जलंतो अगणी अकट्ठो।
चिटुंति बद्धा बहुकूरकम्मा, अरहस्सरा केइ चिरट्टिईया ।। ११ ॥
कठिन शब्दार्थ - सयाजलं - सदा जलने वाला, अकट्ठो - बिना काठ की, चिटुंति - रहते हैं, भरहस्सरा - चिल्लाते हुए, चिरट्टिईया - लंबे काल तक ।
भावार्थ - एक ऐसा प्राणियों का घातस्थान है जो सदा जलता रहता है और जिसमें बिना काठ की आग निरन्तर जलती रहती है उस नरक में प्राणी बाँध दिये जाते हैं वे अपने पाप का फल भोगने के लये चिरकाल तक निवास करते हैं और वेदना के मारे निरन्तर रोते रहते हैं ।
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