Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
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प्रश्न- त्रस और स्थावर प्राणी किसे कहते हैं ?
उत्तर जिनके नामकर्म का उदय है वे त्रस कहलाते हैं । यथा - बेइन्द्रिय, त्रेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय । स्थावर नाम कर्म के उदय वाले जीव स्थावर कहलाते हैं । यथा पृथ्वीकाय, अप्काय, तेऊकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय ।
उत्तराध्ययन सूत्र के छत्तीसवें अध्ययन में और तत्त्वार्थ सूत्र के दूसरे अध्याय में इनका विभाग दूसरी तरह से किया गया है यथा अग्निकाय और वायुकाय को गति त्रस कहा है तथा बेइन्द्रिय इन्द्रिय चउरेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय को लब्धि त्रस अथवा उदार त्रस कहा है और पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय इन तीन को ही स्थावर कहा है ।
प्राण दस कहे गये हैं । उनको जो धारण करे उन्हें प्राणी कहते हैं।
भगवान् प्राणियों के लिये पदार्थ का स्वरूप प्रकट करने से दीपक के समान है। इसलिये भगवान् को दीपक कहा है । अथवा भगवान् संसार सागर में पड़े हुए प्राणियों को सदुपदेश देने से उनके विश्राम का कारण होने से द्वीप के समान हैं। ऐसे भगवान् ने संसार से पार करने में समर्थ श्रुत और चारित्र धर्म को कहा है। भगवान् रागद्वेष रहित हैं अतः वे सब प्राणियों को समान रूप से उपदेश देते हैं। यथा
जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ ।
जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कत्थइ ॥
अर्थ - जैसे राजा महाराजा और सेठ साहुकारों को उपदेश देते हैं। वैसे ही दरिद्र को भी उपदेश देते हैं और जैसे दरिद्र को उपदेश देते हैं वैसा ही सेठ साहुकारों को भी उपदेश देते हैं।
भगवान् ने प्राणियों पर कृपा करके उक्त धर्म का कथन किया है। पूजा सत्कार के लिये नहीं । से सव्वदंसी अभिभूयणाणी, णिरामगंधे धिइमं ठियप्पा ।
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अणुत्तरे सव्व-जगंसि विज्जं, गंथा अतीते अभए अणाऊ ।। ५॥
कठिन शब्दार्थ - सव्वदंसी - सर्वदर्शी समस्त पदार्थों को देखने वाले, अभिभूयणाणीअभिभूतज्ञानी - केवलज्ञानी, णिरामगंधे - विशुद्ध चारित्र का पालन करने वाले, धिइमं धृतिमान् धृति (धैर्य) युक्त, ठियप्पा - स्थितात्मा - आत्म-स्वरूप में स्थित, अणुत्तरे अनुत्तर, विज्जं विद्वान्, सव्वजगंसि - सम्पूर्ण जगत् में, गंथा अतीते - बाह्य और आभ्यंतर ग्रंथि से रहित, अभए- अभय,
अणाऊ - अनायु-आयु रहित ।
भावार्थ - भगवान् महावीर स्वामी समस्त पदार्थों को देखने वाले केवलज्ञानी थे । वे मूल और उत्तर गुणों से विशुद्ध चारित्र का पालन करने वाले बड़े धीर और आत्मस्वरूप में स्थित थे । भगवान्
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