Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन ७. 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
"परं लोकाधिकं धाम, तपःश्रुतमिति व्दयम् । तदेवार्थित्वनिर्लुप्तसारं तृणलवायते ॥" __ अर्थ - परलोक में श्रेष्ठ स्थान दिलाने वाले तप और श्रुत (ज्ञान) ये दो ही वस्तु हैं । इनसे सांसारिक पदार्थ की इच्छा करने पर इनका सार निकल जाने से ये तृण के टुकडे की तरह निःसार हो जाते हैं ।
मुनि पांच इन्द्रियों के विषय में आसक्त न बने अर्थात् मनोज्ञ शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श में राग भाव न करे और अमनोज्ञ में द्वेष भाव न करे ।
सव्वाइं संगाई अइच्च धीरे, सव्वाइं दुक्खाइं तितिक्खमाणे । ____ अखिले अगिद्धेऽणिएयचारी, अभयंकरे भिक्खू अणाविलप्पा ॥ २८ ॥
कठिन शब्दार्थ- संगाई - संबंधों को, अइच्च - छोड़ कर, तितिक्खमाणे - सहन करता हुआ, अखिले - सम्पूर्ण, अगिद्धे - अगृद्ध-अनासक्त, अणिएयचारी - अनियतचारी-अप्रतिबद्धविहारी, अभयंकरे - अभय देने वाला, अणाविलप्पा - विषय कषायों से अनाकुल आत्मा वाला।
भावार्थ - बुद्धिमान् साधु सब सम्बन्धों को छोड़कर सब प्रकार के दुःखों (परीषह उपसर्गों) को सहन करता हुआ ज्ञान दर्शन और चारित्र से सम्पूर्ण होता है तथा वह किसी भी विषय में आसक्त न होता हुआ अप्रतिबद्धविहारी होता है । एवं वह प्राणियों को अभय देता हुआ विषय और कषायों से अनाकुल आत्मा वाला होकर योग्य रीति से संयम का पालन करता है ।
भारस्स जाता मुणि भुंजएग्जा, कंखेज पावस्स विवेग भिक्खू ।
दुक्खेण पुढे धुयमाइएज्जा, संगामसीसे व परं दमेज्जा ।। २९ ॥ ..कठिन शब्दार्थ - भारस्स - पांच महाव्रतरूपी भार, जाता - (जत्ता)- संयम रूपी यात्रा, . भुंजएज्जा - भोजन करे, पावस्स - पाप का, विवेग - विवेक (त्याग) कंखेज - इच्छा करे, दुक्खेणदुःख से, पढे - स्पर्श पाता हुआ, धुयम (धुव)- ध्रुव-संयम (मोक्ष), आइएज्जा - ग्रहण करे, ध्यान रखे, संगामसीसे व- युद्ध भूमि में अग्रिम पंक्ति के योद्धा के समान, दमेजा - दमन करे।
... भावार्थ - मुनि संयम के निर्वाह के लिये आहार ग्रहण करे तथा अपने पूर्व पाप को दूर करने की इच्छा करे । जब साधु पर परीषह और उपसर्गों का कष्ट पड़े तब वह मोक्ष या संयम में ध्यान रखे । जैसे सभट परुष यद्धभमि में शत्र को दमन करता है उसी तरह वह कर्मरूपी शत्रओं को दमन करे ।
अवि हम्ममाणे फलगावयट्ठी, समागमं कंखइ अंतगस्स । णिधूय कम्मं ण पवंचुवेइ, अक्खक्खए वा सगडं। त्ति बेमि ॥ ३० ॥
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