Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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धर्म नामक नववां अध्ययन
धर्म क्या है ? धर्म की जरूरत क्यों है ? आदि चिरंतन प्रश्न, जबसे मानव के हृदय में विकास की जिज्ञासा जगी, तब से होते आ रहे हैं और यह भी नहीं कह सकते कि इन प्रश्नों का सर्वथा अभाव हो जायगा अर्थात् ये प्रश्न सामूहिक अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं । इन प्रश्नों का हल व्यक्ति की अपेक्षा से होता है और वे अपने-अपने विकास के अनुसार उत्तर प्राप्त करते हैं इस प्रकार धर्म के अनेक रूप हो जाते हैं । मानसिक कल्पना और बौद्धिक तरतमता धर्म को विचित्र रूप दे देती है । अतः सत्य के विश्वासी के लिये अथवा जो समझ, विश्वास और आचरण की क्षायोपशमिकता से अनभिज्ञ है उसके सामने यह प्रश्न और अधिक ज्वलंत हो उठता है किं धर्म क्या है ? उसकी क्या जरूरत है ?
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आठवें अध्ययन में बाल वीर्य और पण्डित वीर्य इन दो प्रकार के वीर्यों (शक्ति) का वर्णन : किया गया है। धर्म में किये गये पुरुषार्थ को पण्डित वीर्य कहते हैं। इस अध्ययन में तथा आगे के दो अध्ययनों (दसवें और ग्यारहवें ) में धर्म का स्वरूप बतलाया जायेगा। धर्म का लक्षण बतलाते हुए कहा है
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दुर्गतौ पततः जीवान् यस्माद् धारयते ततः ।
धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद् धर्मः इति स्मृतः ॥
अर्थ - दुर्गति में जाने की तैयारी में स्थित जीवों को दुर्गति से बचा कर जो सुगति में स्थापित करता है उसको धर्म कहते हैं। इस धर्म का स्वरूप दशवैकालिक सूत्र के पहले तथा छठे अध्ययन में विस्तार पूर्वक बतलाया गया है। इस धर्म के दो भेद हैं श्रुत धर्म और चारित्र धर्म । अथवा क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दस भेद भी बतलाये गये हैं और इसी को भाव समाधि भी कहा है। क्योंकि क्षमा आदि गुणों को अपनी आत्मा में स्थापित करना भाव समाधि है और इस को भाव धर्म भी कहते हैं। भाव धर्म के दूसरी तरह से दो भेद किये हैं लौकिक और लोकोत्तर । . लौकिक धर्म दो प्रकार का है- एक गृहस्थों का और दूसरा पाषण्डियों का । लोकोत्तर धर्म के तीन भेद हैं ज्ञान, दर्शन और चारित्र । इनमें मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यव और केवल के भेद से ज्ञान पांच प्रकार का है। दर्शन ( समकित ) भी पांच प्रकार का हैं ग्रंथा औपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशमिक, वेदक और क्षायिक । चारित्र भी पांच प्रकार का है - सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म सम्पराय और यथाख्यात । मुनि को लोकोत्तर धर्म में पुरुषार्थ करना चाहिए । अब धर्म का स्वरूप बतलाने के लिये शास्त्रकार गाथा का उच्चारण करते हैं।
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