Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ . 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जानकर पण्डित पुरुष, सुखभोग की तृष्णा न करे एवं क्रोधादि को छोड़ शान्त और माया रहित होकर विचरे ।
विवेचन - संयम में अच्छा पुरुषार्थ करते हुए उत्तम साधु को देखकर यदि कोई चक्रवर्ती आदि यदि साधु की सत्कार सन्मान आदि रूप पूजा करे तो साधु थोड़ा भी अहंकार न करें तथा मैं उत्तम मरण में उपस्थित हूँ एवं उग्र तपस्या करने से मेरा शरीर कितना दुर्बल हो गया है इस प्रकार थोड़ा भी गर्व न करे इस प्रकार क्रोध और लोभ भी न करे।
यहाँ पर पाठान्तर इस प्रकार मिलता है
"अइमाणं च मायं च तं परिण्णाय पंडिए" __ अर्थ - पण्डित पुरुष अत्यन्त मान और माया के स्वरूप को जानकर उसका भी परित्याग कर दे। दूसरा पाठान्तर भी मिलता है - "सुयं मे इहमेगेसिं, एयं वीरस्स वीरियं"
अर्थ - युद्ध के अग्रभाग में बड़े-बड़े सुभट पुरुषों के समूह में जिस बल के द्वारा शत्रु की सेना जीत ली जाती है, वस्तुतः वह वीर्य नहीं है किन्तु जिसके द्वारा काम क्रोध एवं रागद्वेष जीत लिये जाते हैं वही पुरुष का सच्चा वीर्य है ऐसा तीर्थङ्कर भगवन्तों के द्वारा फरमाया हुआ वाक्य मैंने सुना है। अथवा
"आयतटुंसु आदाय, एवं वीरस्स वीरियं" ।
अर्थ - यहाँ पर आयत शब्द का अर्थ है मोक्ष । उस मोक्ष रूप अर्थ को अथवा उस मोक्ष को देने वाले सम्यग् ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप मोक्ष मार्ग को आयतार्थ कहते हैं। उसको प्राप्त करने के लिये जो पुरुषार्थ किया जाता है वही वास्तविक वीर्य है। इस पण्डित वीर्य के द्वारा पुरुषार्थ करके मोक्ष प्राप्त करना, यही वीर पुरुष की वीरता है।
पाणे य णाइवाएग्जा, अदिण्णं पि य णायए । साइयं ण मुसं बुया, एस धम्मे वुसीमओ ॥१९॥
कठिन शब्दार्थ - ण - नहीं, अइवाएजा - घात करे, अदिण्णं - अदत्त, आयए - ग्रहण करे, . साइयं - कपट सहित, मुसं-झूठ, बुया-बोले, वुसीमओ - जितेन्द्रिय पुरुष मुनि का ।
भावार्थ- प्राणियों की हिंसा न करे तथा न दी हुई चीज न लेवे एवं कपट के साथ झूठ न बोले, जितेन्द्रिय पुरुष का यही धर्म है ।
विवेचन - इस गाथा में हिंसा, झूठ और चोरी इन तीन का ही ग्रहण किया गया है किन्तु यह तो उपलक्षण मात्र है किन्तु हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांचों का त्याग रूप पांच ही महाव्रतों का ग्रहण कर लेना चाहिए। ___ इस गाथा में "साइयं ण मुसं बुया" शब्द दिया है इस पाठ की टीका करते हुए लिखा है -
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