Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 227
________________ २१४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 हैं। ऐसा मार्ग सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यक् चारित्र रूप मोक्ष मार्ग है। बुद्धिमान् पुरुष उसी को ग्रहण करे। ३६३ पाखण्डं मत कुतीर्थिक मत कहलाते हैं उनसे यह किसी भी प्रकार से खण्डित नहीं किया जा सकता है । यही इस स्याद्वाद एवं अनेकान्त वाद रूप मोक्ष मार्ग की विशेषता है । . ... सह संमइए णच्चा, धम्म-सारं सुणेत्तु वा । समुवट्ठिए उ अणगारे, पच्चक्खाय-पावए ।॥१४॥ कठिन शब्दार्थ - सह - साथ, संमइए - सन्मति अर्थात् निर्मल बुद्धि के द्वारा, धम्मसारं - धर्म के सार को, सुणेत्तु - सुन कर, समुवट्ठिए - आचरण के लिए उपस्थित, पच्चक्खायपावए - पाप का प्रत्याख्यान करने वाला। भावार्थ - सन्मति अर्थात् निर्मल बुद्धि के द्वारा अथवा गुरु आदि से सुनकर धर्म के सत्य स्वरूप को जानकर ज्ञान आदि गुणों के उपार्जन में प्रवृत्त साधु पाप को छोड़कर निर्मल आत्मा वाला होता है । विवेचन - गाथा में 'संमइए' शब्द दिया है। जिसका अर्थ है सत्-मति (सन्मति) अथवा स्वमति। अपने विशिष्ट मतिज्ञान, श्रुतज्ञान एवं अवधिज्ञान द्वारा अथवा तीर्थङ्कर, गणधर एवं आचार्य भगवन्तों आदि द्वारा धर्म के स्वरूप को सुन कर धर्म के सार रूप चारित्र को प्राप्त करना चाहिए। . चारित्र को प्राप्त करके पहले बांधे हुए कर्मों का क्षय करने के लिये पण्डित वीर्य द्वारा साधु उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि करता हुआ एवं पाप का प्रत्याख्यान करके निर्मल बनकर मुक्ति को प्राप्त करे । . जं किंचुवक्कम जाणे, आउक्खेमस्स अप्पणो । तस्सेव अंतरा खिप्पं, सिक्खं सिक्खेज्ज पंडिए ॥१५॥ कठिन शब्दार्थ - किंच - कुछ भी, उवक्कम - कोई उपक्रम, आउखेमस्स - आयु क्षेम का, तस्सेव अंतरा - उसके अंतर में ही, खिप्पं - शीघ्र, सिक्खं - संलेखना रूप शिक्षा का, सिक्खेजसेवन करे । भावार्थ - विद्वान् पुरुष किसी प्रकार अपनी आयु का क्षयकाल यदि जाने तो उसके पहले ही संलेखना रूप शिक्षा को ग्रहण करे । विवेचन - जिससे आयु क्षय को प्राप्त होती है उसे उपक्रम कहते हैं। यदि साधु किसी प्रकार अपनी आयुष्य का उपक्रम (विनाश का कारण) जान ले। उसे जानकर आकुल-व्याकुल न बने तथा लम्बे जीवन की आकांक्षा से रहित होकर संलेखना आदि करके पण्डित मरण को स्वीकार करे। पण्डित मरण के तीन भेद बतलाये गये हैं - भक्त परिज्ञा (तिबिहार अथवा चौविहार) तथा इङ्गित मरण या इङ्गणीमरण (मर्यादित जगह में शरीर के अवयवों को चलाना फिराना आदि छूट रखकर चौविहार) तथा पादपोपगमन (कटी हुई वृक्ष की डाली की तरह शरीर के किसी भी अवयव को हिलाये डुलाये बिना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338