Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन ६ .
१६५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कहते हैं और कर्म को भाव कुश कहते हैं । भाव कुश रूपी आठ कर्मों का छेदन करने वाले को कुशल कहते हैं। - 'आशु' का अर्थ है शीघ्र । जिसको शीघ्र प्रज्ञा (बुद्धि) प्राप्त हो जाती है उसे आशुप्रज्ञ कहते हैं। भगवान् महावीर आशुप्रज्ञ थे क्योंकि वे सदा सर्वत्र उपयोग रखने वाले थे। वे छद्मस्थ की तरह सोचविचार कर नहीं जानते थे। किन्तु केवली थे अतएव वे सदा उपयोगवान् थे। आशुप्रज्ञ के बदले कही पर 'महर्षि' शब्द दिया है जिसका अर्थ है भगवान् अत्यन्त उग्र तपस्या करने से तथा अतुल परिषहो और उपसर्गों को सहन करने से महर्षि थे। कहीं पर मेहावी पाठ है। मेधावी आशुप्रज्ञ शब्द दोनों का एक ही अर्थ है
भगवान् का यश मनुष्य, देवता और असुरों से बढ़कर था। इसलिये वे यशस्वी थे तथा भवस्थ केवली अवस्था में वे जगत् के नेत्र मार्ग में स्थित थे अथवा जगत् के सामने सूक्ष्म और व्यवहित पदार्थों को प्रकट करने के कारण वे जगत् के नेत्र स्वरूप थे। ऐसे भगवान् के धर्म को अर्थात् संसार से उद्धार करने के स्वभाव को अथवा उनके द्वारा कहे हुए श्रुत और चारित्र धर्म को तुम जानों अथवा उपसगों के द्वारा पीड़ित किये जाने पर भी चारित्र से अविचल एवं अकम्प स्वभाव रूप उनकी धृति (संयम में प्रीति) को देखो उसे कुशाग्र बुद्धि के द्वारा विचारों अथवा उन्हीं श्रमण आदि के द्वारा पूछे गये श्री जम्बूस्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी से पूछा कि यशस्वी और जगत् के नेत्रपथ में स्थित भगवान् के धर्म और धीरता को आप जानते हैं। इसीलिये यह सब आप मुझे कहने का अनुग्रह कीजिये।
उड्डं अहे यं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा। से णिच्चणिच्चेहि समिक्खपण्णे, दीवे व धम्मं समियं उदाहु ॥ ४ ॥
कठिन शब्दार्थ - उई - ऊर्ध्व, अहे - अधो, तिरियं - तिर्यक्, दिसासु - दिशाओं में, तसा - त्रस, थावर - स्थावर, पाणा - प्राणी, णिच्चणिच्चेहि - नित्य और अनित्य दोनों दृष्टियों से, समिक्ख - समीक्ष्य-भली भांति देख कर, पण्णे - प्रज्ञ (केवलज्ञानी) दीवे व - दीपक के समान, समियं - सम्यक्, धम्मं - धर्म का, उदाहु - कथन किया है।
. भावार्थ - केवलज्ञानी भगवान् महावीर स्वामी ने ऊपर, नीचे और तिरछे रहने वाले त्रस और स्थावर प्राणियों को नित्य तथा अनित्य दोनों प्रकार का जान कर दीपक के समान पदार्थ को प्रकाशित करनेवाले धर्म का कथन किया है । . विवेचन - अब श्री सुधर्मास्वामी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के गुणों का वर्णन प्रारम्भ करते हैं। ऊर्ध्वलोक, तिळलोक और अधोलोक इन तीन लोक जो कि चौदह राजु प्रमाण है। उनमें रहने वाले त्रस और स्थावर प्राणियों को वे भगवान् केवल ज्ञानी हो जाने के कारण जानते हैं। इसीलिये वे प्राज्ञ कहलाते हैं ।
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