Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 इन पृथ्वीकाय आदि जीवों को पीड़ा देने वाले जीव इन पृथ्वीकाय आदि योनियों में ही बार बार जन्म मरण करते रहते हैं अथवा कुतीर्थी लोग मोक्ष प्राप्ति के लिये इन प्राणियों की हिंसा करते हैं परन्तु उन्हें मोक्ष प्राप्ति तो नहीं होती है परन्तु संसार परिभ्रमण करना पड़ता है।
जाइपहं अणुपरिवट्टमाणे, तसथावरेहिं विणिघायमेइ। से जाइ जाइं बहुकूरकम्मे, जं कुव्वइ मिज्जइ तेण बाले ।। ३ ॥ . ..
कठिन शब्दार्थ - जाइपहं - जाति पथ एकेन्द्रिय आदि जातियों में, अणुपरिवट्टमाणे - परिभ्रमण करता हुआ, तसथावरेहि- त्रस और स्थावर में, विणिघायमेइ - नाश को प्राप्त होता है, जाइ जाई - जन्म जन्म में, बहुकूरकम्मे - बहुत क्रूर कर्म करने वाला, मिज्जइ - मृत्यु को प्राप्त होता है.।
भावार्थ - एकेन्द्रिय आदि पूर्वोक्त प्राणियों को दण्ड देने वाला जीव बार बार उन्हीं एकेन्द्रिय आदि योनियों में जन्मता और मरता है । वह त्रस और स्थावरों में उत्पन्न होकर नाश को प्राप्त होता है । वह बार बार जन्म लेकर क्रूर कर्म करता हुआ जो कर्म करता है उसी से मृत्यु को प्राप्त होता है ।
विवेचन - इस गाथा में "जाइपहं" शब्द दिया है, जिसकी संस्कृत छाया दो तरह से होती है यथा - 'जातिपथ' या 'जातिवध'। एकेन्द्रिय आदि की जातियों के मार्ग को जातिपथ कहते हैं । अथवा उत्पत्ति को जाति कहते हैं और मरण को वध कहते हैं । उसमें परिभ्रमण करता हुआ जीव अर्थात् एकेन्द्रिय आदि जातियों में परिभ्रमण करता हुआ बारबार जन्म और मरण को अनुभव करता हुआ यह जीव त्रस और स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होकर बारबार नाश को प्राप्त होता रहता है । सत् और असत् के विवेक से हीन होने के कारण बालक के समान अज्ञानी है । स्वयं कर्म उपार्जन कर उसके द्वारा बार बार मरण को प्राप्त होता रहता है ।
अस्सिं च लोए अदुवा परत्था, सयग्गसो वा तह अण्णहा वा। संसार मावण्ण परं परं ते, बंधंति वेयंति य दुणियाणि ॥ ४॥
कठिन शब्दार्थ - अस्सिं - इस लोक में, परत्था - पर लोक में, सयग्गसो - सैकडों जन्मों में, तह - तथा, अण्णहा - अन्यथा एक रूप में अथवा अन्य रूप में, संसारं - संसार, आवण्ण-प्राप्त हुआ, परं परं - आगे से आगे, बंधति - बांधते हैं, वेदंति - वेदते हैं, दुण्णियाणि - दुष्कृत-पाप कर्म ।।
भावार्थ - कोई कर्म, इसी जन्म में अपना फल कर्ता को देता है और कोई दूसरे जन्म में देता है । कोई एक ही जन्म में देता है और कोई सैकड़ों जन्मों में देता है । कोई कर्म जिस तरह किया गया है उसी तरह फल देता है और कोई दूसरी तरह देता है। कुशील पुरुष सदा संसार में भ्रमण करते रहते हैं .
और वे एक कर्म का फल दुःख भोगते हुए फिर आर्तध्यान आदि करके दूसरा कर्म बाँधते हैं । वे अपने पाप का फल सदा भोगते रहते हैं ।
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