Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
चिया महंतीउ समारभित्ता, छुब्भंति ते तं कलुणं रसंतं । आवट्टइ तत्थ असाहुकम्मा, सप्पी जहा पडियं जोइमाझे ॥ १२ ॥
कठिन शब्दार्थ - चिया - चिता, समारभित्ता - बना कर, छुब्भंति - डाल देते हैं, आवट्टइ - द्रवीभूत होता है, सप्पी - घी, पडियं - पडा हुआ, जोइमझे - आग में ।
__ भावार्थ - परमाधार्मिक, बडी चिता बनाकर उसमें करुण रुदन करते हुए नैरयिक जीव को फेंक देते हैं उसमें पापी जीव गल कर पानी हो जाते हैं जैसे आग में पड़ा हुआ घृत द्रव हो जाता है अर्थात् घी पीघल जाता है।
सदा कसिणं पुण घम्मठाणं, गाढोवणीयं अइ दुक्खधम्म । हत्येहि पाएहि य बंधिऊणं, सत्तुव्व डंडेहि समारभंति ॥ १३ ॥
कठिन शब्दार्थ - कसिणं- कृत्स्न-संपूर्ण, घम्मठाणं - गर्म स्थान, गाढोवणीयं - गाढोपनीतकर्मों से प्राप्त, अइदुक्खधम्मं - अत्यंत दुःख धर्म-स्वभाव वाला, सत्तुष्व - शत्रु की तरह, .. समारभंति - ताडन करते हैं ।
भावार्थ - निरन्तर जलने वाला एक गर्म स्थान है वह निधत्त निकाचित आदि अवस्था वाले कर्मों : से प्राणियों को प्राप्त होता है तथा वह स्वभाव से ही अत्यन्त दुःख देने वाला है उस स्थान में नैरयिक जीव का हाथ पैर बाँध कर शत्रु की तरह नरकपाल डंडों से ताड़न करते हैं ।
भंजंति बालस्स वहेण पुष्टुिं, सीसंपि भिंदंति अयोधणेहिं । ते भिण्णदेहा फलगं व तच्छा, तत्ताहि आराहि णियोजयंति ॥ १४ ॥
कठिन शब्दार्थ - भंजंति - तोड़ देते हैं, पुट्टि - पीठ को, भिंदति - फोड़ देते हैं, अयोधणेहिं - लोहे के घनों से, भिण्णदेहा- भग्न अंग प्रत्यंग वाले, फलगं - फलक, तच्छा - छिले हुए चीर कर पतले किये हुए, तत्ताहि - तप्त, आराहि - आराओं से, णियोजयंति - धकेले जाते हैं, बाध्य किये जाते हैं । ___भावार्थ - नरकपाल, लाटी से मार कर नैरयिक जीवों की पीठ तोड़ देते हैं तथा लोह के घन से मार कर उनका शिर चूर चूर कर देते हैं । इसी तरह उनकी देह को चूर चूर करके उन्हें तप्त आरा से काठ की तरह चीर देते हैं फिर उनको गर्म शीशा पीने के लिये बाध्य करते हैं ।
अभिजुंजिया रुद्द असाहुकम्मा, उसुचोइया हत्यिवहं वहति । एगं दुरूहित्तु दुवे ततो वा, आरुस्स विझंति ककाणओ से ॥ १५ ॥
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