Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
दुक्खी मोहे पुणो पुणो, णिविंदेज सिलोग पूयणं। एवं सहिएऽहिपासए, आयतुले पाणेहि संजए ॥१२॥
कठिन शब्दार्थ - णिविंदेज - त्याग दे, सिलोग - श्लोक-स्तुति, पूयणं - पूजा को, . अहिपासए - देखे, आयतुले - आत्म तुल्य ।
भावार्थ - दुःखी जीव, बार बार मोह को प्राप्त होता है इसलिए साधु अपनी स्तुति और पूजा को त्याग देवे । इस प्रकार ज्ञानादि संपन्न साधु सब प्राणियों को अपने समान देखें।
. विवेचन - असाता वेदनीय कर्म के उदय से दुःख प्राप्त है। अज्ञानी जीव उस समय उस दुःख को समभाव से सहन न करके हाय-त्राय रूप आर्तध्यान करके फिर नये कर्म बांधता है। इससे बारबार दुःख की प्राप्ति होती है। अतः विवेकी पुरुष आये हुए दुःख को समभाव पूर्वक सहन करे। .. ____ गाथा में 'सिलोगपूयणं' शब्द दिया है। उसका अर्थ इस प्रकार है- 'सिंलोग' का अर्थ है श्लोक, जिसका अर्थ है आत्मश्लाघा, आत्मप्रशंसा तथा 'पूयण' शब्द का अर्थ है - पूजन। अर्थात् वस्त्रादि लाभ से लोभान्वित होना पूजन अथवा पूजा कहलाता है। विवेकी पुरुष इन दोनों को भी छोड़ देवे तथा सभी प्राणियों को सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है ऐसा जान कर सब प्राणियों को अपने आत्म तुल्य समझे। किसी भी प्राणी को दुःख न दें।
गारं पि अ आवसे णरे, अणुपुव्वं पाणेहिं संजए । ... समया सव्वत्थ सुब्बए, देवाणं गच्छे सलोगयं ॥१३॥ .
कठिन शब्दार्थ - गारं - अगार-घर, आवसे - रहता हुआ, अणुपुव्वं - क्रमशः, पाणेहिं - प्राणियों की, संजए - संयत-हिंसा से निवृत्त, सुव्वए - सुव्रत पुरुष ।
भावार्थ - जो पुरुष गृहस्थावस्था में निवास करता हुआ भी क्रमशः श्रावकधर्म को प्राप्त करके प्राणियों की हिंसा से निवृत्त होता है तथा सर्वत्र समभाव रखता है वह सुव्रत पुरुष देवताओं के लोक में जाता है ।
. विवेचन - घर में रहते हुए जिस धर्म का पालन किया जाय उसे गृहस्थ धर्म कहते हैं। उसका दूसरा नाम श्रावक धर्म या श्रमणोपासक धर्म है। उसका यथावत् पालन करने वाला श्रावक वैमानिकों में १२ वें देवलोक तक जा सकता है और इन्द्र पदवी भी पा सकता है तो फिर पञ्च महाव्रतधारी साधु की तो कहना ही क्या? वह तो सर्व कर्मों का क्षय करके उसी भव में मोक्ष जा सकता है । यदि कुछ कर्म शेष रह जाय तो वैमानिकों में सर्वार्थ सिद्ध तक जा सकता है। . सोच्या भगवाणुसासणं, सच्चे तत्थ करेग्जुवक्रम ।
सव्वत्थ विणीयमच्छरे, उंछं भिक्खु विसुद्धमाहरे ॥१४॥
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