Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
देव भी कष्ट पाते हुए नैरयिक जीवों को देख कर खुश होते हैं, अट्टहास करते हैं, तालियां बजाते हैं। इन बातों से परमाधार्मिक देव बडा आनन्द मानते हैं परन्तु वे अज्ञानी जीव यह नहीं समझते हैं कि इन कार्यों से फिर उनके नये कर्म बन्ध होते हैं। • इंगालरासिं जलियं सजोई, तत्तोवमं भूमिमणुक्कमंता ।
ते डण्झमाणा कलुणं थणंति, अरहस्सरा तत्थ चिरविइया ॥७॥
कठिन शब्दार्थ - इंगालरासिं - अंगार राशि को, जलियं - जलती हुई, सजोइं - ज्योति सहित, भूमिं - भूमि पर, अणुक्कमंता - चलते हुए, डजमाणा - जलते हुए, कलुणं - करुण, थणंति - क्रन्दन करते हैं, अरहस्सरा - महाशब्द करते हुए, चिल्लाते हुए, चिरट्ठिइया-चिर काल तक स्थित-निवास करते हैं। - भावार्थ - जैसे जलती हुई अङ्गार की राशि बहुत तप्त होती है तथा जैसे अग्नि सहित पृथिवी बहुत गर्म होती है इसी तरह अत्यन्त तपी हुई नरक की भूमि में चलते हुए नरक के जीव जलते हुए बड़े जोर से करुण रुदन करते हैं, वे वहां चिर काल तक निवास करते हैं।
जइ ते सुया वेयरणीऽभिदुग्गा, णिसिओ जहा खुर इव तिक्ख-सोया । तरंति ते वेयरणी भिदुग्गां, उसुचोइया सत्तिसु हम्ममाणा ।।८ ॥
कठिन शब्दार्थ - वेयरणी - वैतरणी नदी को, अभिदुग्गा- अति दुर्गम, खुर इव - उस्तरे (छुरे) जैसी, तिक्खसोया - तीक्ष्ण धार वाली, उसुचोइया - बाण से प्रेरित किये हुए, सत्तिसु- भाले के द्वारा, हम्ममाणा - मारे जाते हए । __ भावार्थ - उस्तरे के समान तेज धार वाली वैतरणी नदी को शायद तुमने सुना होगा । वह नदी बड़ी दुर्गम है । जैसे बाण से (लकडी के अग्र भाग में तीखी कील लगाकर उसके द्वारा टोंच मारकर
बैल को चलाते हैं उसे बाण कहते हैं) और भाला से भेद कर प्रेरित किया हुआ मनुष्य लाचार होकर किसी भयङ्कर नदी में कूद पड़ता है इसी तरह सताये जाते हुए नारकी जीव घबरा कर उस नदी में कूद पड़ते हैं।
कीलेहिं विझंति असाहुकम्मा, णावं उविते सइ विप्पहूणा। अण्णे तु सूलाहिं तिसूलियाहिं, दीहाहिं विदधूण अहेकरंति ॥९॥
कठिन शब्दार्थ - कोलेहिं - कीलों से,, विझंति - चुभोते हैं, असाहुकम्मा - असाधुकर्मापरमाधार्मिक, उविते - पास आते हुए, सइविप्पहूणा - स्मृति शून्य, सूलाहिं - शूलों से, तिसूलियाहिं - त्रिशूलों से, दीहाहिं - दीर्घ, विभ्रूण - बिंध कर अहे - नीचे । ।
भावार्थ - वैतरणी नदी के दुःख से उद्विग्न नैरयिक जीव जब नाव पर चढने के लिये आते हैं तब
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