Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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गि सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
राज्ञां अयं धर्मो यदुत आखेटबकेन विनोदक्रियायदिवान मांस क्षणे दोषो, न मद्ये न चे मैथुने। प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला॥१॥
अर्थात् – राजाओं का यह धर्म है कि वे शिकार के द्वारा अपना चित्त विनोद करते हैं। शिकार से राजाओं का चित्त प्रसन्न होता है। अथवा मांस खाने में, मदिरा पीने में और मैथुन सेवन करने में कोई दोष नहीं है। क्योंकि ये तो जीव के स्वभाव हैं। इनसे निवृत्त होने का महान् फल है। इत्यादि उन क्रूर और हिंसक मनुष्यों का कथन है वे अपने पाप के कारण भयङ्कर यातना स्थान (नरक) को प्राप्त होते
'हण, छिंदह, भिंदह णं दहेह', सद्दे सुणित्ता परहम्मियाणं । ते णारगाओ भयभिण्णसण्णा, कंखंति कं णाम दिसं वयामो ॥६॥
कठिन शब्दार्थ - हण - मारो, छिंदह - छेदन करो, भिंद- भेदन करो, दहेह - जलाओ, सुणित्ता - सुन कर, परहम्मियाणं - परमाधार्मिक देवों के, भयभिण्णसण्णा - भयभिन्न संज्ञा-भय से संज्ञा हीन, कंखंति - चाहते हैं ।
___ भावार्थ - नारकी जीव, मारो, काटो, भेदन करो, जलाओ इत्यादि परमाधार्मिकों का शब्द सुनकर : भय से संज्ञाहीन हो जाते हैं और वे चाहते हैं कि - हम किस दिशा को भाग जायें ।। - विवेचन - प्रश्न - नरक किसे कहते हैं ?
उत्तर - घोर पापाचरण करने वाले जीव अपने पापों का फल भोगने के लिए अधोलोक में जिन स्थानों में पैदा होते हैं उन्हें नरक अथवा नरक पृथ्वी कहते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं - १. घम्मा, २. वंसा. ३. सीला, ४. अंजना ५. रिट्ठा ६. मघा ७. माघवई। इन सातों के गोत्र हैं- १. रत्नप्रभा २. शर्कराप्रभा ३. वालुकाप्रभा ४. पंकप्रभा ५. धूमप्रभा ६. तमःप्रभा और ७. महातमः प्रभा।
प्रश्न - परमाधार्मिक देव किसे कहते हैं ? उनका निवास स्थान कहां है ? तथा वे कितने हैं ?
उत्तर - भगवती सूत्र शतक २ उद्देशक ८ में इस प्रकार बतलाया गया है - इस समतल भूमिभाग से ४० हजार योजन नीचे जाने पर भवनपति देवों के भवन हैं। असुरकुमार आदि दस भवनपतियों के भेद हैं। पहली रत्नप्रभा पृथ्वी के तेरह प्रस्तट (पाथडा) हैं । एक पाथडे से दूसरे पाथडे तक जो खाली जगह है उसे अन्तर (आंतरा) कहते हैं। तेरह प्रस्तट हैं अतः बीच के बारह अन्तर हो जाते हैं। इनमें से पहले दूसरे अन्तरे को छोड़ कर तीसरे से बारहवें अन्तरे तक दस जाति के भवनपति देवों के भवन हैं। इनमें से तीसरे अन्तर में असुरकुमार जाति के भवनपति देवों के भवन हैं। पन्द्रह परमाधार्मिक देव असुरकुमार जाति के भवनपति देव हैं। उनके नाम और कार्य इस प्रकार हैं -
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