Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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नरक विभक्ति नामक पांचवां अध्ययन
पाप के फल हर जगह भोगे जाते हैं । परन्तु पूर्ण व्यक्त चेतना में, सारी आयुष्य तक जिस क्षेत्र में, पापों के फल स्वरूप दुःख ही दुःख भोगे जाते हो, उस नियत क्षेत्र को नरक कहा गया है । निकृष्टतम पापों के फल, व्यक्त चेतना में, नरक के सिवाय अन्यत्र भोगना संभव नहीं है । अतः "नरक है" - यह मानना युक्ति-संगत है ।
पहला उद्देशक
पुच्छि हं केवलियं महेसिं, कहं भितावा णरगा पुरत्था ।
अजाओ मे मुणि बूहि जाणं, कहं णु बाला णरयं उविंति ॥ १ ॥
कठिन शब्दार्थ - हं - अहं मैंने, पुच्छिसु पूछा था, भितावा- अभितावा- पीड़ा, अजाणओ नहीं जानने वाले, होते हैं ।
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महेसिं
णरयं
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भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी आदि से कहते हैं कि मैने केवलज्ञानी महर्षि महावीर स्वामी से पूर्व समय में यह पूछा था कि नरक में कैसी पीड़ा भोगनी पड़ती है, हे भगवन् ! मैं इस बात को नहीं जानता हूं किन्तु आप जानते हैं इसलिये आप मुझको यह बतलाइये तथा यह भी कहिये कि अज्ञानी जीव किस प्रकार नरक को प्राप्त होते हैं ।
महर्षि को, कहं - कैसी,
नरक को, उविंति प्राप्त
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एवं मए पुट्ठे महाणुभावे, इणमोऽब्बवी कासवे आसुपण्णे ।
पवेदइस्सं दुहमदुग्गं, आदीणियं दुक्कडियं पुरत्या ॥२ ॥
कठिन शब्दार्थ - पुट्ठे - पूछे जाने पर, महाणुभावे - महानुभाव - बड़े माहात्म्य वाले, कासवे - काश्यपगोत्रीय, आसुपण्णे- आशुप्रज्ञ, दुहमट्ठ- दुःखदायी, दुग्गं - अज्ञेय - विषम, पवेदइस्सं बताऊंगा, आदीणियं - अत्यंत दीन, दुक्कडियं दुष्कृतिक-पापी जीव ।
भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी आदि से कहते हैं कि इस प्रकार मेरे द्वारा पूछे हुए अतिशय माहात्म्यसम्पन्न सब वस्तुओं में सदा उपयोग रखने वाले काश्यपगोत्र में उत्पन्न भगवान् महावीर स्वामी ने कहा कि नरक स्थान बडा ही दुःखदायी और असर्वज्ञ जीवों से अज्ञेय है वह पापी और दीन जीवों का निवास स्थान है यह मैं आगे चलकर बताऊंगा ।
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