Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन ४ उद्देशक २
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भावार्थ - जिसने स्त्री सम्पर्क जनित रज यानी कर्मों को दूर कर दिया था तथा जो रागद्वेष से रहित थे उस वीर प्रभु ने पूर्वोक्त बातें कहीं हैं इसलिये निर्मलचित्त और स्त्री सम्पर्क वर्जित साधु मोक्षपर्य्यन्त संयम के अनुष्ठान में प्रवृत्त रहे ।
विवेचन - इस अध्ययन में स्त्री की निंदा नहीं है, परन्तु वस्तु स्थिति बताकर, साधक को सचेत किया गया है । जिस प्रकार भिक्षु के लिये स्त्री का उपसर्ग है उसी प्रकार भिक्षुणी के लिये पुरुष का उपसर्ग है । कई धूर्त भोली-भाली अज्ञ साधिकाओं को, अपने सुनहरी माया जाल से उनकी सुप्त वासनाओं को भड़का कर, उन्हें पतित बना देते हैं और यहां तक कि वे पुरुष प्रेम का स्वांग भरकर, मक्कारी के साथ उनके रूप का- उनके शरीर का व्यापार करके, उनके स्त्रीत्व के साथ खिलवाड़ करते हैं । तब उन पतित स्त्रियों की दुर्दशा का पार नहीं रहता है । अत: चाहे पुरुष साधक हो चाहे स्त्री साधिका हो, उन्हें अपने विरोधी लिंग वालों से हमेशा सावधान रहने की जरूरत है, जिससे कि शास्त्रकार सम्मत हैं । परन्तु यहां भिक्षु की अपेक्षा से स्त्री-उपसर्प का स्वरूप ही वर्णित है, जो कि स्वाभाविक है। .
कामभोगों का बहुत कड़वा फल होता है। जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र के चौदहवें अध्ययन में कहा गया है -
खणमित्त सुक्खा बहुकाल दुक्खा, पगामदुक्खा अणिगामसुक्खा । संसार मोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा ॥
अर्थ - काम भोग क्षण मात्र सुख देने वाले हैं तथा चिरकाल तक दुःख। वे अत्यन्त दुःखकारक और अल्प सुखदायी होते हैं, संसार से मुक्ति के विपक्षीभूत कामभोग अनर्थों की खान है। - अतः ज्ञानी पुरुष फरमाते हैं कि अपनी आत्मा का हित चाहने वाले पुरुषों को काम भोगों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये।
॥इति दूसरा उद्देशक ॥ ॥स्त्री परिज्ञा नामक चौथा अध्ययन समाप्त॥
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