Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
00000000.......................0000000000
-
विवेचन - अज्ञानी और अविवेकी पुरुष ही साधु-जन की निन्दा करते हैं। क्योंकि अज्ञान और अविवेक के कारण वे अंध पुरुष के तुल्य हैं। जैसे कि कहा है एकं हि चक्षुरमलं सहजो विवेकः, तद्वद्भिरेव सह संवसतिर्द्वितीयम् ।।
एतद् द्वयं भुवि न यस्य स तत्त्वतोऽन्धः,
तस्यापमार्गचलने खलु को पराध: ? ।। १ ।।
अर्थ - एक नेत्र तो स्वाभाविक निर्मल विवेक है और दूसरा नेत्र विवेकी पुरुषों के साथ सङ्गति कर निवास करता है । परन्तु जिसके पास ये दोनों नेत्र नहीं है वास्तव में पृथ्वी पर वही पुरुष अन्धा है। वह यदि कुमार्ग पर जाय तो इसमें उसका क्या दोष है। ज्ञानी पुरुष इस चमडे की आंख को वास्तविक आंख न कह कर विवेक को वास्तविक आंख कहते हैं। हिन्दी कवि ने भी कहा है
९६
..............................00
-
लाखिणो तो मानव कहिये, विवेक निन्याणु हजार ।
एक हजार में सब गुण समझो, विवेक बिना सब निस्सार ।
अतः अज्ञानी और अविवेकी पुरुषों के वचनों से मुनि को खेदित नहीं होना चाहिये ।
पुट्ठो य दंसमसएहिं, तण - फास - मचाइया ।
ण मे दिट्ठे परे लोए, जइ परं मरणं सिया ॥ १२॥
कठिन शब्दार्थ - दंसमसएहिं दंशमशक- दंश और मच्छरों से, तण फासं तृण स्पर्श को, अचाइया - सहन नहीं कर सकता।
भावार्थ - दंश और मच्छरों का स्पर्श पाकर तथा तृण की शय्या के रूक्ष स्पर्श को सहन नहीं कर सकता हुआ नवीन साधु यह भी सोचता है कि मैंने परलोक को तो प्रत्यक्ष नहीं देखा है परंतु इस कष्ट से मरण तो प्रत्यक्ष दीखता है ।
-
विवेचन - इस गाथा में दंस (डांस) और मच्छरों का परीषह कहा गया है। तृणों का रूखा स्पर्श और दंसमसग परीषह मुनि को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिये ।
संतत्ता केसलोएणं, बंभचेर - पराइया ।
तत्थ मंदा विसीयंति, मच्छा विट्ठा व केयणे ॥ १३ ॥
Jain Education International
-
कठिन शब्दार्थ - संतत्ता संतप्त पीड़ित, केसलोएणं केश लोच से, बंभचेरपराइया - ब्रह्मचर्य से पराजित, विट्ठा ( पविट्ठा) - फंसी हुई, केयणे - जाल में ।
-
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org