Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ___कठिन शब्दार्थ - पासे - निकट, भिसं - अत्यंत, णिसीयंति - बैठती हैं, अभिक्खणं - निरन्तर, पोसवत्थं - कामवर्द्धक सुन्दर वस्त्रों को, परिहिंति - पहनती है, दंसंति - दिखलाती है, बाहू - भुजा को, उद्धट्ट- ऊठा कर, कक्खं - कांख, अणुव्बजे - सन्मुख जाती है ।
भावार्थ - स्त्रियाँ साधु को ठगने के लिये उनके निकट बहुत ज्यादा बैठती है और निरन्तर सुन्दर वस्त्र को ढीला होने का बहाना बना कर पहिनती है तथा शरीर के नीचले भाग को भी काम उद्दीपित करने के लिये साधु को दिखलाती है एवं भुजा उठाकर कांख दिखलाती हुई साधु के सामने आती हैं ।
सयणासणेहिं जोगेहि, इथिओ एगया णिमंतंति । एयाणि चेव से जाणे, पासाणि विरूवरूवाणि ॥४॥
कठिन शब्दार्थ - सयणासणेहिं - शयन और आसन के द्वारा, जोगेहिं - उपभोग करने के योग्य, पासाणि - पाश-बंधनरूप, विरूवरूवाणि - विरूपरूप-नाना प्रकार के।
भावार्थ - कभी एकान्त स्थान में स्त्रियाँ साधु को पलंग पर तथा उत्तम आसन पर बैठने के लिये प्रार्थना करती हैं । परमार्थदर्शी साधु इन्हीं बातों को नाना प्रकार का पाशबन्धन समझे।
णो तासु चक्खू संधेज्जा, णो वि य साहसं समभिजाणे । णो सहियं पि विहरेग्जा, एवमप्पा सुरक्खिओ होइ ॥५॥
कठिन शब्दार्थ - चक्खू - आँख, संधेजा - लगावे, मिलावे, साहसं - साहस-मैथुन भावना का, समभिजाणे - अनुमोदन करे, विहरेजा - विहार करे, सुरक्खिओ - सुरक्षित, होइ - होता है । . भावार्थ - साधु स्त्रियों पर अपनी दृष्टि न लगावे तथा उनके साथ कुकर्म करने का साहस न करे एवं उनके साथ ग्रामानुग्राम विहार न करे, इस प्रकार साधु का आत्मा सुरक्षित होता है ।
आमंतिय उस्सविया, भिक्खं आयसा णिमंतंति । एयाणि चेव से जाणे, सहाणि विरूवरूवाणि ॥६॥
कठिन शब्दार्थ - आमंतिय - आमंत्रित कर, उस्सविया - विश्वास देकर, आयसा - अपने साथ, सहाणि - शब्दों को।
भावार्थ - स्त्रियाँ साधु को संकेत देती है कि मैं अमुक समय में आपके पास आऊँगी तथा नाना प्रकार के वार्तालापों से विश्वास उत्पन्न करती हैं । इसके पश्चात् वे अपने साथ भोग करने के लिये साधु को आमन्त्रित करती हैं अतः विवेकी साधु स्त्री सम्बन्धी इन शब्दों को नाना प्रकार का पाश बन्धन जाने ।
मण-बंधणेहिं णेगेहिं, कलुण-विणीय-मुवगसित्ताणं । . अदु मंजुलाइं भासंति, आणवयंति भिण्णकहाहिं ॥७॥
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