Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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. श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
तमेगे परिभासंति, भिक्खुयं साहु-जीविणं । जे एवं परिभासंति, अंतए ते समाहिए ॥८॥
कठिन शब्दार्थ - साहु-जीविणं - साधु वृत्ति से जीने वाले, परिभासंति - आक्षेप वचन कहते हैं अंतए - दूर, समाहिए - समाधि से ।
भावार्थ - उत्तम आचार से अपना जीवन निर्वाह करने वाले साधु के विषय में कोई अन्यतीर्थी आगे कहा जाने वाला आक्षेप वचन कहते हैं परन्तु जो इस प्रकार आक्षेप वचन कहते हैं वे समाधि से दूर हैं।
संबद्ध-समकप्पा उ, अण्ण मण्णेसु मुच्छिया । पिंडवायं गिलाणस्स, जं सारेह दलाह य ॥ ९॥
कठिन शब्दार्थ - संबद्धसमकप्पा - संबद्धसमकल्प-गृहस्थ के समान व्यवहार अण्णमण्णेसु - एक दूसरे में, पिंडवायं - पिंडपात-आहार, सारेह - लाते हो, दलाह - देते हो । .
भावार्थ - अन्यतीर्थी सम्यग्दृष्टि साधुओं के विषय में यह आक्षेप करते हैं कि इन साधुओं का व्यवहार गृहस्थों के समान है जैसे गृहस्थ अपने कुटुम्ब में आसक्त रहते हैं वैसे ही ये साधु भी परस्पर आसक्त रहते हैं तथा रोगी साधु के लिये ये लोग आहार लाकर देते हैं ।
एवं तुब्भे सरागत्था, अण्णमण्ण मणुव्वसा । णट्ठ-सप्पह-सब्भावा, संसारस्स अपारगा ॥१०॥
कठिन शब्दार्थ - सरागत्था - सरागी, अण्णमण्ण-मणुष्वसा - एक दूसरे के वशवर्ती, णट्ठसप्पहसब्भावा - सत्पथ और सद्भाव से रहित, अपारगा - पार नहीं पाने वाले ।
भावार्थ - अन्यतीर्थी, सम्यग्दृष्टि साधुओं पर आक्षेप करते हुए कहते हैं कि आप लोग पूर्वोक्त प्रकार से राग सहित और एक दूसरे के वश में रहते हैं, अत: आप लोग सत्पथ और सद्भाव से रहित हैं इसलिये संसार को पार नहीं कर सकते हैं ।
विवेचन - अन्य मतावलम्बी जैन साधुओं के विषय में कहते हैं कि - जिस प्रकार गृहस्थ माता पिता भाई पुत्र स्त्री एक दूसरे से सम्बन्धित हैं और एक दूसरों का उपकार करते हैं इसी प्रकार आप साधु लोग भी आचार्य उपाध्याय गुरु भ्राता शिष्य आदि से सम्बन्धित हैं और परस्पर एक दूसरों का उपकार करते हैं । आहार पानी वस्त्र आदि लाकर देते हैं इसलिये आप लोग गृहस्थ के समान हैं । ऐसा अन्य मतावलम्बियों का आक्षेप है । इसका उत्तर शास्त्रकार आगे की गाथाओं में देते हैं ।
अह ते परिभासेज्जा, भिक्खु मोक्ख-विसारए । एवं तुब्बे पभासंता, दुपक्ख चेव सेवह ॥ ११ ॥
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