Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन ३ उद्देशक ३ 000000000000000000000000000000000000०००००००००००००००००००००००००००० ___ कठिन शब्दार्थ - सूरपुरंगमा - शूरों में अग्रणी, पिट्ठमुवेहिति- पीछे की बात पर विचार नहीं . करते हैं ।
भावार्थ - जो पुरुष संसार में प्रसिद्ध तथा वीरों में अग्रेसर हैं वे युद्ध के अवसर में यह नहीं सोचते हैं कि विपत्ति के समय मेरा बचाव कैसे होगा ? वे समझते हैं कि मरण के सिवाय दूसरा क्या हो सकता है ?
. एवं समुट्ठिए भिक्खू, वोसिज्जाऽगार-बंधणं । आरंभं तिरियं कटु, अत्तत्ताए परिव्वए ॥७॥
कठिन शब्दार्थ - समुट्ठिए - समुत्थित-संयम पालन के लिए उठा हुआ, वोसिज्ज - त्याग कर, अत्तत्ताए - आत्म हित-मोक्ष के लिए परिव्वए - अनुष्ठान करें ।
भावार्थ - जो साधु, गृहबन्धन को त्याग कर तथा सावद्य अनुष्ठान को छोड़कर संयम पालन करने के लिए तत्पर हुआ है वह मोक्ष प्राप्ति के लिये शुद्ध संयम का अनुष्ठान करे ।
विवेचन - सेना के अग्रभाग में रहने वाला शूर वीर पुरुष युद्ध से भागने का विचार करता ही नहीं है । इसीलिये वह छिपने के लिये दुर्ग (किला) आदि को देखता ही नहीं है । वह सोचता है कि - युद्ध में अधिक से अधिक मरण हो सकता है इससे अधिक कुछ नहीं । जैसा कि कहा है -
विशरारुभिरविश्वरमपि चपलैःस्थास्नु वाच्छतां विशदम्। प्राणैर्यदि शूराणां भवति यशः किं न पर्याप्तम् ? ॥१।
अर्थ - प्राणियों के प्राण नश्वर और चञ्चल हैं । उसके बदले यदि अनश्वर और शुद्ध यश को लेने की इच्छा करने वाले शूरवीरों को यदि प्राणों के बदले यश मिलता है तो क्या वह यश प्राणों की अपेक्षा अधिक मूल्यवान् नहीं है ?
. यह शूरवीर का दृष्टान्त देकर शास्त्रकार फरमाते हैं कि युद्ध में जाने वाले उस शूर वीर की तरह महापराक्रमी साधु पुरुष भी परलोक को नष्ट करने वाले इन्द्रिय और कषाय आदि शत्रुओं को विजय करने के लिये जो संयम भार को लिया है तब वह पीछे की ओर नहीं देखते हैं ।
पंचिंदियाणि कोहं, माणं मायं तहेव लोहं च । दुजयं चेव अप्पाणं, सव्वमप्पे जिए जियं ।।३६ ॥ उत्तरा० अध्ययन ९ गाथा ३६
अर्थ-पांच इन्द्रियाँ, क्रोध, मान, माया, लोभ और दुर्जय आत्मा ये सब अपनी आत्मा जीत लेने पर स्वत: जीत लिये जाते हैं।
अतः साधक को संयम पालन के लिये दृढ़ता के साथ मोक्ष मार्ग में आगे बढ़ना चाहिये ।
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