Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
कठिन शब्दार्थ - पेसलं - पेशल-उत्तम, दिट्ठिमं - जानने वाला परिणिव्वुडे - परिनिर्वृत्तरागद्वेष से रहित णियामित्ता - वश में करके आमोक्खाए - मोक्ष पर्यंत, तिबेमि - इति ब्रवीमिऐसा मैं कहता हूँ।
भावार्थ - पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को जानने वाला शान्त मुनि इस उत्तम धर्म को जानकर तथा उपसर्गों को सहन करता हुआ मोक्ष.पर्यन्त संयम का अनुष्ठान करे ।
॥इति तीसरा उद्देशक ॥
चौथा उद्देशक उत्थानिका - पूर्व उद्देशक में अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों का वर्णन किया गया है। इन उपसर्गों के द्वारा कदाचित् कोई कायर साधु संयम को छोड़ देता है फिर वह संयम पतित साधु इस प्रकार का उपदेश देता है। वह इस उद्देशक में बताया जाता है -
आहेसु महापुरिसा, पुव्विं तत्त-तवोधणा । उदएण सिद्धि मावण्णा, तत्थ मंदो विसीयइ॥१॥
कठिन शब्दार्थ - तत्त-तवोधणा - तप्त तपोधन, उदएण - जल से, सिद्धिं - सिद्धि को, आवण्णा - प्राप्त हुए, विसीयइ - विषाद (खेद) को प्राप्त होता है।
भावार्थ - कोई अज्ञानी पुरुष कहते हैं कि पूर्व काल में तप रूपी धन का संचय करने वाले महापुरुषों ने शीतल जल का उपभोग करके सिद्धि को प्राप्त किया था यह सुनकर अज्ञानी मनुष्य शीतल जल के उपभोग में प्रवृत्त हो जाते हैं ।
विवेचन - परमार्थ को नहीं जानने वाले कई अज्ञानी लोग कहते हैं कि - पूर्वकाल में वल्कलचीरी, तारागण ऋषि आदि कई महापुरुषों ने पञ्चाग्नि सेवन आदि तपस्याओं के द्वारा अपने शरीर को खूब तपाया था। उन्होंने शीतल (कच्चा) जल, कंद मूल फल आदि का उपभोग कर सिद्धि प्राप्त की थी। यह सुन कर और इस बात को सत्य मान कर कच्चा जल आदि सचित्त वस्तुओं का सेवन करने लग जाते हैं । यह उनकी कायरता और अज्ञानता है।
अभुंजिया णमी विदेही, रामगुत्ते य भुंजिया । बाहुए उदगं भोच्चा, तहा तारायणे रिसी ॥२॥
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