Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 करे तथा जिस कार्य के करने से या जैसा भाषण करने से अन्य पुरुष अपना विरोधी न बने ऐसा कार्य अथवा भाषण करे। . विवेचन - अनुमान के पांच अवयव (अङ्ग) है यथा - १. पक्ष - इस पर्वत की अग्नि में गुफा है। २. हेतु - क्योंकि इस पर्वत में से धूम (धूआं) निकल रहा है। ३. दृष्टान्त - जहाँ जहाँ धूआं होता है वहाँ वहाँ अग्नि होती है (व्याप्ति) जैसे पाकशाला (रसोई घर) ४. उपनय - पक्ष में हेतु को दोहराना जैसे - इस पर्वत में भी धूम है। ५. निगमन - पक्ष में साध्य को दोहराना। जैसे इसलिये इस पर्वत की गुफा में अग्नि है। आशय यह है कि जिस हेतु दृष्टान्त आदि के कहने से अपने पक्ष की सिद्धि होती हो अथवा जिस मध्यस्थ वचन के कहने से दसरे के चित्त में किसी प्रकार का द:ख न हो साधु को वैसा कार्य करना चाहिये तथा दूसरा कोई मनुष्य इस अनुष्ठान अथवा भाषण से अपना विरोधी न बने वह अनुष्ठान साधु करे तथा वैसा वचन बोले ।
इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेइयं । कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए ॥२०॥
कठिन शब्दार्थ - धम्म - धर्म को, आदाय - स्वीकार करके गिलाणस्स - ग्लान रोगी साधु का अगिलाए - ग्लानि रहित, समाहिए - समाधि वाला-प्रसन्नचित्त । .
भावार्थ - काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा कहे हुए इस धर्म को स्वीकार करके प्रसन्नचित्त मुनि रोगी साधु को ग्लानि रहित होकर वैयावच्च (सेवा) करे ।
विवेचन - प्रश्न - धर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर - दशवैकालिक सूत्र के पहले अध्ययन की पहली गाथा में धर्म का स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया है -
धम्मो- अहिंसा संजमो तवो।
अर्थात् - जिससे अहिंसा संयम और तप की प्राप्ति होती हो, उसे धर्म कहते हैं। इसी बात को किसी संस्कृत कवि वे भी इस प्रकार कहा है -
दुर्गतौ प्रसृतान् जंतून, यस्माद्धारयते ततः। धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद्धर्म इति स्मृतः ॥
अर्थ - जो दुर्गति में जाने से जीवों को रोक कर शुभ स्थान (सुगति) में स्थापित करता है उसे धर्म कहते हैं।
प्रश्न - वैयावच्च (वैयावृत्य) किसे कहते हैं ? उत्तर - अपने से बड़े सन्त तथा रोगी, ग्लान, असमर्थ साधु साध्वी की सेवा सुश्रूषा करने को
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