Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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___ अध्ययन ३ उद्देशक १ 000000000000000000000000000000000000000000000000००००००००००००००००
कठिन शब्दार्थ - हेमंत मासम्मि - हेमंत मास में, फुसइ - स्पर्श करती है, सव्वगं (सवातगं)सर्वांग को, विसीयंति - विषाद का अनुभव करते हैं, रज्जहीणा - राज्यहीन-राज्य भ्रष्ट ।
भावार्थ - जब हेमंत ऋतु के मासों में शीत, सब अंगों को स्पर्श करती है उस समय कायर पुरुष, राज्यभ्रष्ट क्षत्रिय की तरह विषाद अनुभव करते हैं ।
विवेचन - गाथा में आये हुए 'सव्वगं' के स्थान पर 'सवातगं' ऐसा पाठान्तर भी मिलता है। जिसका अर्थ है - 'ठण्डी हवा सहित' जैसे राज्य भ्रष्ट राजा मन में खेद खिन्न होता है कि - मैंने लड़ाई भी लड़ी, इतने सैनिक भी मारे गये और राज्य. भी हाथ से चला गया। इसी प्रकार कायर साधक भी कड़ाके की ठण्ड और बर्फीली हवा रूप उपसर्ग आने पर यह सोच कर खिन्न होता है कि- मैंने घर बार भी छोड़ा, सुख सुविधायें भी छोड़ी, घरवालों को नाराज भी किया उनका कहना नहीं माना। अब मुझे ऐसी असह्य सर्दी का कष्ट सहना पड़ रहा है।
पुढे गिम्हाहितावेणं, विमणे सुपिवासिए । तत्थ मंदा विसीयंति, मच्छा अप्पोदए जहा ॥५॥
कठिन शब्दार्थ - गिम्हाहितावेणं - ग्रीष्माभिताप-ग्रीष्म ऋतु के अभिताप (गर्मी) से, विमणे - विमन-उदास, सुपिवासिए - सुपिपासिंत-प्यास से युक्त, मच्छा - मछली, अप्पोदए - अल्पोदक-थोड़े
जल में ।
भावार्थ - ज्येष्ठ आषाढ़ मासों में जब भयंकर गर्मी पड़ने लगती है उस समय उस गर्मी से और प्यास से पीड़ित नवदीक्षित साधु उदास हो जाता है । उस समय अल्पशक्ति कायर पुरुष इस प्रकार विषाद अनुभव करता है जैसे थोड़े जल में मछली विषाद अनुभव करती है । .... विवेचन - जैसे गर्मी के दिनों में जलाशय का जल कम हो जाने पर मछली गर्मी से तप्त होकर दुःखी होती है इसी तरह अल्प पराक्रमी साधक भी चारित्र लेकर मैल और पसीने से भीगा हुआ तथा बाहर की गर्मी से तप्त हुआ हुआ पूर्व भोगे हुए शीतल जल से स्नान, चन्दन का लेप आदि पदार्थों को स्मरण करता है। इस प्रकार व्याकुल चित्त होकर संयम के अनुष्ठान में खेद का अनुभव करता है।
सया दत्तेसणा दुक्खा, जायणा दुप्पणोल्लिया ।। कम्मत्ता दुब्भगा चेव, इच्चाहंसु पुढो जणा ॥६॥
कठिन शब्दार्थ - दत्तेसणा - दत्तैषणा-दूसरे के द्वारा दी हुई वस्तु की ही अन्वेषण करना, जायणा - याचना-भिक्षा मांगने का कष्ट, दुप्पणोल्लिया - दुसह्य, कम्मत्ता - पूर्वकृत पाप कर्म का फल भोग रहे हैं, दुब्भगा -.दुर्भग-भाग्यहीन ।
भावार्थ - साधु को दूसरे के द्वारा दी हुई वस्तु को ही अन्वेषण करने का दुःख, सदा बना रहता
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