Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध -१
रिद्धि सहावतरला, रोग - जरा-भंगुरं हयसरीरं । दोहं पि गमण सीलाणं, कियच्चिरं होज्ज संबंधो ॥१ ॥ (ऋद्धिः स्वभावतरला रोगजराभङ्गुरं हतशरीरम् । द्वयोरपि गमनशीलयोः कियच्चिरं भवति संबन्धः ॥ १ ॥ )
अर्थ - ऋद्धि (धन सम्पत्ति) स्वभाव से ही चञ्चल है। यह विनश्वर शरीर रोग और बुढापे के... कारण क्षणभंगुर है अतः इन दोनों गमनशील - नाशवान् पदार्थों का सम्बन्ध कब तक रह सकता है ? वास्तव में जिस शरीर के लिये धनादि वस्तुओं के संचय की इच्छा करता है वह शरीर ही विनाशशील है। फिर वे धनादि चञ्चल पदार्थ शरीर को नष्ट होने से कैसे बचा सकते हैं और उन्हें कैसे शरण दे सकते हैं ?
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प्रश्न- माता पिता आदि जीव के लिये शरणभूत रक्षक क्यों नहीं हो सकते हैं । उत्तर - ज्ञानी फरमाते हैं।
मातापितृसहस्त्राणि, पुत्रदारशतानि च ।
प्रति जन्मनि वर्त्तन्ते, कस्य माता पितापि वा ॥
अर्थ संसार में परिभ्रमण करते हुए इस जीव के अनन्त जन्म मरण हो चुके हैं। इसलिये अनन्त माता, अनन्त पिता, अनन्त पुत्र और अनन्त पत्नियां हो चुकी हैं । प्रत्येक जन्म में ये पलटते जाते हैं ऐसी स्थिति में कौन किसकी माता और कौन किसका पिता है ? फिर भी अज्ञानी जीव मूढता और ममत्व वश मानते हैं कि ये पदार्थ मेरे हैं और मैं भी इनका हूँ। यह उस जीव की अज्ञानता है।
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अब्भागमियंमि वा दुहे, अहवा उक्कमिए भवंतिए ।
एगस्स गई य आगई, विउमंता सरणं ण मण्णइ ॥ १७ ॥
कठिन शब्दार्थ - अब्भागमियंमि - आने पर, उक्कमिए - उपक्रम से, भवंतिए - भवान्तिक भव का अंत (मृत्यु) होने पर, एगस्स अकेले, गइ गति- जाना, आगइ आगति आना, विउमंताविद्वान् पुरुष ।
भावार्थ - जब प्राणी के ऊपर किसी प्रकार का दुःख आता है तब वह उसे अकेला ही भोगता है • तथा उपक्रम के कारणों से आयु नष्ट होने पर अथवा मृत्यु उपस्थित होने पर वह अकेला ही परलोक में जाता है इसलिए विद्वान् पुरुष किसी को अपना शरण नहीं मानते हैं । -
विवेचन - असातावेदनीय कर्म के उदय से जब जीव दुःखी बनता है तब वह उसे अकेला ही भोगता है।
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