Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
देव, राजा, यति, ज्ञाति, स्थविर, अधम, माता और पिता, इन आठों का मन, वचन, काया और दान इन चार प्रकारों से विनय होता है। इस प्रकार आठ को चार से गुणा करने से ३२ भेद होते हैं।
क्रियावादी स्व की अपेक्षा पदार्थों के अस्तित्त्व को ही मानते हैं किन्तु पर रूप की अपेक्षा नास्तित्त्व नहीं मानते हैं। यह प्रत्यक्ष बाधित है। इसलिये क्रियावादी का मत मिथ्यात्व पूर्ण है। इसी प्रकार अक्रियावादी जीवादि पदार्थ के अस्तित्त्व को नहीं मानता हैं ऐसा मानने पर उन के स्वयं का अर्थात् निषेध कर्ता का ही अभाव हो जाता है। निषेध कर्ता का अभाव होने से सभी पदार्थों का अस्तित्व स्वतः सिद्ध हो जाता है। .
अज्ञानवादी अज्ञान को ही श्रेष्ठ मानते हैं परन्त यह बात भी वे बिना ज्ञान के कैसे जान सकते हैं और बिना ज्ञान के अपना समर्थन भी कैसे कर सकते हैं ? अतः इनको ज्ञान का आश्रय लेना ही पड़ता है।
विनयवादी केवल विनय से ही स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होना मानते हैं अतः वे मिथ्यादृष्टि हैं। क्योंकि ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष की प्राप्ति होती है। उनमें से किसी एक से नहीं ।
सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं । जे उ तत्थ विउस्संति, संसारं ते विउस्सिया ॥ २३॥
कठिन शब्दार्थ - पसंसंता - प्रशंसा करते हुए, गरहंता - गर्हा-निंदा करते, विउस्संति - विद्वता प्रकट करते हैं, विउस्सिया- दृढ़ रूप से बंधे हुए ।
भावार्थ - अपने अपने मत की प्रशंसा और दूसरों के मत की निन्दा करने वाले जो अन्यतीर्थी अपने मत की स्थापना और परमत के खण्डन करने में विद्वत्ता दिखाते हैं वे संसार में दृढ़ रूप से बँधे हुए हैं ।
विवेचन - किसी की निन्दा करना पाप है। पापं संसार को बढ़ाने वाला होता है। किसी मत की कुछ मान्यता हो किन्तु उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिये। यदि किसी की मान्यता वीतराग वाणी के विरुद्ध है तो युक्तिपूर्वक उसका निराकरण करके उसको वीतराग मार्ग बताना जिससे कि उसके आत्मा का हित सुधरे, यह निन्दा नहीं है यह तो उसके लिये हित कारक है और सन्मार्ग प्रदर्शक है।
अहावरं पुरक्खायं, किरियावाई दरिसणं । कम्म चिंतापणट्ठाणं, संसारस्स पवड्डणं ॥ २४॥
कठिन शब्दार्थ - पुरक्खायं - पूर्वोक्त, किरियावाई - क्रियावादियों का, दरिसणं - दर्शन, कम्म चिंतापणट्ठाणं - कर्म की चिन्ता से रहित, संसारस्स - संसार का, पवड्डणं - प्रवर्द्धन-बढाने वाला ।
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