Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
तरह तरह के सन्त हैं, तरह तरह के पन्थ ।
अन्त जहां दुष्कर्म का, वही धर्म का पन्थ ॥
यह जीव अनादि काल से कर्म मल से मलिन बना हुआ है। उन आठ कर्मों से छूटकारा पाकर सर्व शुद्ध निरंजन निराकार पुनरागमन रहित बन जाता है। इस प्रकार का उपाय और उस उपाय को. जीवन में उतारना यह सिद्धान्त जहाँ बतलाया गया है वही सिद्धान्त सत्य है । ऐसा सिद्धान्त रागद्वेष विजेता वीतराग भगवन्तों का है।
सए सए उवट्ठाणे, सिद्धिमेव ण अण्णा ।
अहो इहेव वसवत्ती, सव्वकाम समप्पिए ॥ १४ ॥
कठिन शब्दार्थ - उवट्ठाणे उपस्थान-अनुष्ठान से ही, अण्णहा वशवर्ती - जितेन्द्रिय, सव्वकाम समप्पिए - सर्वकाम समर्पित-सब कामनाएं सिद्ध होती है ।
भावार्थ- मनुष्यों को अपने-अपने अनुष्ठान से ही सिद्धि मिलती है और तरह से नहीं मिलती है । मोक्ष प्राप्ति के पूर्व मनुष्य को जितेन्द्रिय होकर रहना चाहिए इस प्रकार उसकी ब. कामनायें पूर्ण होती हैं ।
सिद्धा य ते अरोगा य, इहमेगेसिमाहियं ।
सिद्धिमेव पुरोकाउं, सासए गढिया नरा ॥ १५ ॥
कठिन शब्दार्थ - अरोगा - अरोग-नीरोग, सिद्धिं सिद्धि को, एव ही, पुरोकाउं आगे रख कर, सासए - शाश्वत, गढिया - गूंथे हुए हैं ।
भावार्थ - अन्यदर्शनी कहते हैं कि हमारे दर्शन ( मत) के अनुष्ठान से सिद्धि को जो प्राप्त करते हैं वे नीरोग होते हैं । वे अन्यदर्शनी सिद्धि को आगे रख कर अपने दर्शन से ही बंधे रहते हैं । इस प्रकार वे कर्मों से भी छुटकारा नहीं पा सकते हैं ।
विवेचन - अन्य मतावलम्बियों की मान्यता है कि जो हमारे मत को स्वीकार कर लेता है उसकी सब कामनायें सिद्ध हो जाती हैं। उस पुरुष को मोक्ष जाने के पहले आठ प्रकार की ऐश्वर्यशाली सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं। यथोक्तं -
अणिमा महिमा चेव, लघिमा गरिमा तथा ।
प्राप्तिः प्राकाम्य मीशित्वं, वशित्वं चाष्टसिद्धयः ।
अर्थ - - १. अणिमा - योग विद्या के प्रभाव से योगिजनों को ऐसी सिद्धि प्राप्त हो जाती है कि वे अपने शरीर को परमाणु के समान सूक्ष्म बना देते हैं इस शक्ति को अणिमा कहते हैं ।
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अन्यथा, वसंवत्ती
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