Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन २ उद्देशक २
६३
... भावार्थ - हे मनुष्यो ! कर्म को विदारण करने में समर्थ मार्ग का आश्रय लेकर मन वचन और काया से गुप्त होकर तथा धन ज्ञातिवर्ग और आरम्भ को छोड़कर उत्तम संयमी बनकर विचरो ।
विवेचन - संयम मार्ग ही कर्मों को विदारण करने में समर्थ है। अतः जितेन्द्रिय बनकर दृढ़ता पूर्वक संयम का पालन करना चाहिये।
इति ब्रवीमि- शब्द का अर्थ पहले कर दिया गया है। श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से सुना वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ।
॥इति पहला उद्देशक॥
दूसरा उद्देशक
मनुष्य स्थूल त्याग-बाह्य त्याग अधिक कठिनाई के बिना भी कर सकता है । परन्तु अपने आपको बड़ा समझने की वृत्ति वह बड़ी कठिनाई से छोड़ पाता है । वह संसार में रहता है तब उसे धनादि का गौरव रहता है । धनादि के अभाव में जाति-कुलादि का अभिमान हो जाता है । इस प्रकार अभिमान स्थूल से सूक्ष्म पर होता जाता है और त्याग में अपने त्याग पर ही अभिमान होने लगता है-इसलिये साधक को अपनी दृष्टि को पैनी बनाने की बड़ी आवश्यकता रहती है । अपने अवगुणों की ओर से आँखें मूंद लेने से और अपने बड़प्पन का ही हमेशा चिंतन करते रहने से अभिमान उत्पन्न होता है-दूसरे को तुच्छ समझने की वृत्ति जागृत होती है । अभिमान अशान्ति का जनक और उत्थान का अवरोधक है । अतः सूत्रकार ने बाह्य त्याग के उपदेश के बाद इस उद्देशक में अभिमान त्याग रूप आभ्यन्तर त्याग का उपदेश किया है -
तयसं व जहाइ से रयं, इइ संखाय मुणी ण मज्जइ। गोयण्णतरेण माहणे, अह सेयकरी अण्णेसी इंखिणी ॥१॥
कठिन शब्दार्थ - तयसं - त्वचा को, संखाय - जान कर, मजइ - मद करता है, गोयण्णतरेणगोत्र तथा दूसरे मद के कारणों से, इंखिणी - निंदा, असेयकरी - अश्रेयकारी-कल्याण का नाश करने वाली ।
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