Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन २ उद्देशक २ 00000000000000000000000000000000000000000०००००००००००००००००००००००
दूसरी वाचना - वीर निर्वाण ८२७ से ८४० के बीच मथुरा में हुई। स्कन्दिलाचार्य की अध्यक्षता में हुई। इसे माथुरी वाचना या 'स्कन्दिली वाचना' कहते हैं। इसी समय तीसरी वाचना वल्लभीपुरी में नागार्जुन आचार्य की अध्यक्षता में हुई। जिसमें कण्ठस्थश्रुत को एक रूपता दी गई। इसको वल्लभी वाचना' या 'नागार्जुनीय वाचना' कहते हैं। चौथी वाचना ९८० से ९९३ तक वल्लभीपुरी में देवर्द्धिगणी क्षमा श्रमण की अध्यक्षता में हुई। ---
सूत्र पाठों को संकलित कर पुस्तकारूढ किया गया दूसरी और तीसरी वाचना के पाठों को एकरूपता देने का प्रयत्न किया गया। जहाँ मतभेद रहा वहाँ माथुरी वाचना को मुख्य मानकर पाठान्तर दिया गया इसलिये 'नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' टीकाकार ऐसा लिखते हैं। भिन्न-भिन्न पाठ होते हुए भी उनमें परिवर्तन, परिवर्द्धन आदि करने का साहस और हस्तक्षेप देवर्द्धिगणी ने नहीं किया। इससे उनमें उत्सूत्र प्ररूपणा का भय और भव भीरुता लक्षित होती है। ... उपरोक्त 'पलिमंथ' गाथा का अर्थ इस प्रकार है -
स्वाध्याय और ध्यान में तत्पर एकान्त निस्पृह विवेकी पुरुष राजा महाराज आदि द्वारा किये हुए वन्दन पूजन आदि सत्कार को सत् अनुष्ठान और सद्गति का महान् विघ्न जान कर उसे छोड़ देवे। जबकि वन्दन पूजन आदि भी सत् अनुष्ठान या सद्गति का विघ्न रूप है तब फिर शब्दादि विषयों में आसक्ति की तो बात ही क्या है ? अतः बुद्धिमान् पुरुष को आसक्ति का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये।
एगे चरे ठाणमासणे, सयणे एगे समाहिए सिया । भिक्खू उवहाण वीरिए, वइ गुत्ते अज्झत्त संवुडो ॥१२॥
कठिन शब्दार्थ - ठाणं - स्थान, आसणे - आसन, सयणे- शयन, समाहिए - समाहित-धर्म ध्यान से युक्त, उवहाण वीरिए- तप में बल प्रकट करने वाला, अज्झत्त (अज्झप्प) संवुडो - अध्यात्म संवृत्त मन से गुप्त ।
- भावार्थ - वचन और मन से गुप्त, तप में पराक्रम प्रकट करने वाला साधु, स्थान आसन और शयन अकेला करता हुआ धर्मध्यान से युक्त होकर अकेला ही विचरे । अर्थात् रागद्वेष रहित होकर धर्म ध्यान में तल्लीन रहे एवं तप संयम का पालन करने में अपना पुरुषार्थ और पराक्रम खूब प्रकट करे।
णो पीहे ण याव पंगुणे, दारं सुण्ण-घरस्स संजए । पुढे ण उदाहरे वयं, ण समुच्छे णो संथरे तणं ॥१३॥
कठिन शब्दार्थ - पीहे - बंद करे, ण याव पंगुणे- न खोले, दारं - दरवाजा, सुण्णघरस्स - शून्य घर का, पुढे - पूछा हुआ, समुच्छे - कचरा निकाले, संथरे - बिछावे ।
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