Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
तीसरा उद्देशक संवुडकम्मस्स भिक्खुणो, जं दुक्खं पुटुं अबोहिए। .तं संजमओऽवचिज्जइ, मरणं हेच्चं वयंति पंडिया ॥१॥
कठिन शब्दार्थ - संवुडकम्मस्स - कर्मों का आना जिसने रोक दिया, पुटुं - बंध हुआ है, अबोहिए - अज्ञान से, अवचिज्जइ- क्षीण हो जाता है, हेच्च - छोड़ कर ।
भावार्थ -जिस भिक्षु ने आठ प्रकार के कर्मों का आगमन रोक दिया है उसको जो अज्ञान वश कर्मबन्ध हुआ है वह संयम के अनुष्ठान से क्षीण हो जाता है । वे विवेकी पुरुष, मरण को छोड़कर मोक्ष प्राप्त करते हैं।
विवेचन - संयम मार्ग में विचरण करते हुए मुनि को आने वाले परीषह उपसर्गों को समभाव से सहन करना चाहिये । इससे पूर्वोपार्जित अज्ञान जनित कर्मों का क्षय होता है कर्म क्षय से जन्म जरा मरण रहित मुक्ति की प्राप्ति होती है ।
जे विण्णवणाहिज्जोसिया, संतिण्णेहिं समं वियाहिया। तम्हा उडे ति पासहा, अदक्खु कामाइं रोगवं ॥२॥
कठिन शब्दार्थ - विण्णवणाहि - विज्ञापना-प्रार्थना करने वाली, अजोसिया - असेवित, संतिण्णेहि - मुक्त पुरुषों के, अदक्खु - देखा है, कामाइ - काम भोगों को, रोगवं - रोग के समान ।
भावार्थ - जो पुरुष, स्त्रियों से सेवित नहीं हैं, वे मुक्त पुरुष के सदृश हैं । स्त्री परित्याग के बाद मुक्ति होती है यह जानना चाहिए । जिसने काम भोग को रोग के समान जान लिया है. वे पुरुष मुक्त पुरुष के सदृश हैं।
विवेचन - गाथा में 'विण्णवणाहि' शब्द दिया है जिसका अर्थ है - विज्ञापना । कामी पुरुष स्त्री के प्रति अपनी कामना प्रकट करता है अथवा जो स्त्री कामी पुरुष के सामने अपना अभिप्राय प्रकट करती है उसे विज्ञापना कहते हैं । विज्ञापना' शब्द में स्त्री और पुरुष दोनों का ग्रहण किया गया है । दोनों के संयोग से मैथुन पाप पैदा होता है । इस पाप से एवं समस्त पापों से जो निवृत्त हो गये हैं वे मुक्त पुरुष कहे गये हैं।
यहां गाथा के तीसरे चरण के स्थान में पाठान्तर पाया जाता है वह इस प्रकार है - "उड्डे तिरियं अहे तहा". अर्थात् सौधर्म आदि ऊर्ध्व लोक रूप देवलोकों में और तिरछे लोक में तथा भवनपति आदि
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