Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तथा दूसरे की रक्षा करता है, जो स्त्री, पशु, नपुंसक रहित स्थान में निवास करता है ऐसे मुनि का तीर्थंकरों ने सामायिक चारित्र कहा है इसलिए मुनि को भयभीत न होना चाहिए ।
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विवेचन - 'उपनीत' शब्द का अर्थ है नजदीक पहुंचाना। उससे भी अधिक नजदीक पहुंचाना 'उपनीततर कहलाता है | गाथा में उपनीततर शब्द दिया है। उसका आशय यह है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र की अधिक शुद्धि और वृद्धि के कारण जिस मुनि ने अपने आत्मा को मोक्ष के अत्यन्त्य नजदीक पहुंचा दिया है। ऐसे मुनि को 'उपनीततर' कहते हैं । परीषह उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करने से सर्वज्ञ भगवन्तों ने उसका समभाव पूर्वक सामायिक चारित्र कहा है ।
उसिणोदग - तत्तभोइणो, धम्मट्ठियस्स मुणिस्स हीमओ ।
श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
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संसग्गि असाहु राइहिं, असमाही उ तहागयस्स वि ॥ १८ ॥
कठिन शब्दार्थ - उसिणोदगतत्तभोइणो- उष्णोदक- तप्तभोजी गरम जल को ठंडा किये बिना पीने वाले, धम्मट्ठियस्स - धर्म में स्थित, हीमओ असंयम से लज्जित होने वाला, संसग्गि संसर्ग करना, असाहु - असाधु, बुरा, राइहिं राजा आदि के साथ तहागयस्स - तथागत-शास्त्रोक्त आचार पालने वाले
का ।
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भावार्थ - गरम जल को ठंडा किए बिना पीने वाले, श्रुत और चारित्र धर्म में स्थित, असंयम से लज्जित होनेवाले मुनि का राजा महाराजा आदि साथ संसर्ग अच्छा नहीं है क्योंकि वह शास्त्रोक्त आचार पालने वाले मुनि का भी समाधि भंग का कारण बनता है।
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विवेचन - गाथा में "उसिणोदग तत्तभोइणो" शब्द दिया है। टीकाकार ने इसके दो अर्थ किये हैं- पहला अर्थ है जिसमें तीन बार उकाला आ गया है अथवा जिसमें पानी गर्म किया जाता है। उस बर्तन में रहे हुए पानी का नीचे का भाग, मध्य का भाग और ऊपर का भाग, यों तीनों जगह का पानी गर्म हो गया है ऐसे गरम जल को जो पीता है अथवा कोई अभिग्रह धारी मुनि गर्म जल को ठंडा किये बिना पीता है। ये दोनों अर्थ तत्तं (तप्त) शब्द से निकलते हैं। गर्म जल को ठंडा करके पीना साधु के लिये किसी प्रकार की दोषोत्पत्ति का कारण नहीं है । उववाइय सूत्र में अनेक प्रकार के अभिग्रह (प्रतिज्ञा विशेष) बतलाये गये हैं। इसीलिये गरम जल को ठंडा किये बिना पीना यह भी एक अभिग्रह हो सकता है।
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अहिगरणकडस्स भिक्खूणो, वयमाणस्स पसज्झ दारुणं
अट्ठे परिहाइ बहु, अहिगरणं ण करेज्ज पंडिए ॥ १९ ॥
कठिन शब्दार्थ - अहिगरणकडस्स- अधिकरणकृत - कलह करने वाला, पसज्झ प्रकट रूप से, दारुणं - दारुण-कठोर, अट्ठे - अर्थ, परिहायइ - नष्ट हो जाता है ।
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