Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
स्थावर प्राणी त्रस पर्याय में चले जाते हैं परन्तु त्रस जीव दूसरे जन्म में भी त्रस ही होते हैं और स्थावर जीव स्थावर ही होते हैं अर्थात् जो इस जन्म में जैसा है वह दूसरे जन्म में भी वैसा ही होता है यह नियम नहीं है।
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जो एक जगह स्थिर रहते हैं उन्हें 'स्थावर' कहते हैं । पृथ्वीकाय अप्काय, तेडकाय, वाउकाय एवं वनस्पतिकाय सभी स्थावर एकेद्रिय हैं। जो अपनी इच्छानुसार चल फिर सकते हैं उन्हें 'त्रस' कहते हैं । बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय ये सभी त्रस जीव हैं ।
उरालं जगओ जोगं, विवज्जासं पलेंति य ।
सव्वे अनंत दुक्खा य, अओ सव्वे अहिंसया ॥ ९ ॥
कठिन शब्दार्थ - उरालं उदार-स्थूल, जगओ - जगत्-औदारिक जीवों का, विवज्जासं विपर्य्यय को, पलेंति - प्राप्त होता है, अक्कंतदुक्खा - दुःख अप्रिय है, अहिंसया - हिंसा नहीं करनी चाहिये ।
भावार्थ - औदारिक जन्तुओं का अवस्था विशेष स्थूल है क्योंकि सभी प्राणी एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था में जाते रहते हैं तथा सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है इसलिए किसी की हिंसा नहीं करनी चाहिए ।
विवेचन - सांसारिक सभी प्राणी शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित हैं तथा भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते हुए पाये जाते हैं । सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय और सुख प्रिय होता है । किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिये ।
अतः
एयं खुणाणिणो सारं, जंण हिंसइ किंचणं ।
अहिंसा समयं चेव, एयावंतं वियाणिया ॥ १०॥
कठिन शब्दार्थ - णाणिणो ज्ञानी पुरुष का, सारं साररूप- न्यायसंगत, समयं - समता, एयावंतं - इतना, वियाणिया- जानना चाहिये ।
भावार्थ - किसी जीव को न मारना, यही ज्ञानी पुरुष के लिए न्यायसंगत है और अहिंसा रूप समता भी इतनी ही है ।
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विवेचन - पढ़ने लिखने और ज्ञान प्राप्त करने का यही सार है कि वह जगत् के सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के तुल्य समझे ऐसा समझ कर किसी भी जीव की हिंसा न करें। किसी भी जीव को जरासा भी कष्ट न पहुंचावे तथा झूठ, चोरी कुशील, परिग्रह (ममता - मूर्च्छा) का सर्वथा त्याग कर दे । यही ज्ञान का सार है।
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