Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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"वैतालिक नामक दूसरा अध्ययन
__ पहला उद्देशक संबुज्झह किं ण बुझह ? संबोही खलु पेच्च दुल्लहा । णो हूवणमंति राइओ, णो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥१॥
कठिन शब्दार्थ - संबुझह - तुम बोध को प्राप्त करो, संबोही - संबोधि-बोधः प्राप्त करना, पेच्च - प्रेत्य-मृत्यु के पश्चात्, दुल्लहा - दुर्लभ, राइओ - रात्रियों, णो - नहीं, हु - निश्चय, उवणमंति- लौट कर आती हैं, सुलभं - सुलभ, पुणरावि - पुनरपि-पुनः फिर, अपि - भी, जीवियंसंयम जीवन को।
भावार्थ - हे भव्यो ! तुम बोध प्राप्त करो, तुम बोध को प्राप्त क्यों नहीं करते हो ? जो रात्रियां व्यतीत हो गई है वे फिर लौट कर नहीं आती हैं मनुष्य भव और उसमें भी फिर संयमजीवन मिलना सुलभ नहीं है।
विवेचन - इस अध्ययन का नाम 'वेतालीय' है। संस्कृत में विपूर्वक 'दृ विदारणे' धातु से विदारक शब्द बनता है। जिसका अर्थ है 'भेदन करना'। प्राकृत में 'विदारक' शब्द का 'वेतालीय' (वेयालीय) शब्द बन जाता है। इस अध्ययन में कर्मों को विदारण करने के उपाय बतलाये गये हैं। इसलिये इस अध्ययन को 'वेतालीय' कहते हैं । अथवा 'वैतालीय' नामका एक छन्द विशेष है उसी छन्द में इस अध्ययन की रचना की गई है। इसलिये इस अध्ययन का नाम वेतालीय रखा गया है।
टीकाकार ने इस गाथा का सम्बन्ध भगवान् ऋषभदेव के ९८ पुत्रों के साथ जोड़ा है। यथाऋषभराजा ने ८३ लाख पूर्व गृहस्थ अवस्था में रह कर फिर दीक्षा अंगीकार की। एक हजार वर्ष छद्मस्थ अवस्था में रहने के बाद विनीता (अयोध्या) नगरी के उपनगर पुरिमताल नगर के बाहर शकटमुख उद्यान में पद्मासन से विराजमान भगवान् ऋषभदेव को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई। उसी दिन उनके बड़े पुत्र भरत राजा के यहाँ आयुधशाला में चक्ररत्न की उत्पत्ति हुई। उस चक्ररत्न की सहायता से भरतक्षेत्र के छह खण्डों को साध लिया अर्थात् छह खण्डों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया इस प्रकार भरत राजा चक्रवर्ती बन कर वापिस अयोध्या में लौटा। परन्तु चक्र रत्न अपने स्व स्थान आयुधशाला में प्रविष्ट नहीं हुआ। तब सेनापति रत्न श्री सुसेन ने भरत से निवेदन किया कि - आप के छोटे ९९ भाइयों ने अभी तक आपकी अधीनता स्वीकार नहीं की है इसलिये चक्र रत्न आयुधशाला में प्रविष्ट नहीं हो
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