Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन १ उद्देशक ३
फोड़ा फूट गया हो और पीप उस पक्वान्न में पड़ गई हो तो वह बहन उसं पक्वान्न को नहीं खायेगी अर्थात् यद्यपि वह पक्वान्न है तो भी उसे नहीं खायेगी बल्कि उससे उसे घृणा उत्पन्न होगी। इसी प्रकार - पूतिकर्म आहार आदि साधु-साध्वी के लिए ग्रहण करना अयोग्य है बल्कि वह संयम का घातक होने से उससे उसको घृणा होनी चाहिये ।
किसी ने साधु साध्वी के निमित्त आहारादि बनाया, उसे 'आधाकर्म' कहते हैं । इसका थोड़ासा भी अंश शुद्ध आहार में शामिल हो गया तो वह 'पूतिकृत' (पूतिकर्म) कहलाता है । साधु को मालूम पड़ जाने से उस आहार को ग्रहण नहीं किया तब उस गृहस्थ ने अपनी बहन बेटी या रिश्तेदार जो कि वहाँ से हजार घर की दूरी पर रहता है उसके यहाँ भेज दिया । मुनि वहाँ गोचरी चले गये । वहाँ उन्हें ' मालूम हो गया कि यह आहारादि उस गृहस्थ ने यहाँ भेज दिया है । यह वही 'आधाकर्म' और 'पूतिकृत' आहार है तो मुनि को उसे ग्रहण नहीं करना चाहिये । यदि वह उस आहारादि को लेकर अपने प्रयोग में लेता है तो वह मुनि दो पक्षों का सेवन करता है अर्थात् वेष से तो वह लोगों को साधु मालूम होता है किन्तु आचरण से वह गृहस्थ है ।
तमेव अवियाणंता, विसमंसि अकोविया ।
मच्छा वेसालिया चेव, उदगस्सऽभियागमे ॥ २ ॥ उदगस्स पभावेणं, सुक्कं सिग्धं तमिंति उ । ढकेहि कंकेहि य, आमिसत्थेहिं ते दुही ॥ ३ ॥
कठिन शब्दार्थ - अवियाणंता नहीं जानते हुए, मच्छा मत्स्य- मछली, वेसालिया - वैशालिक, उदगस्सऽभियागमे - जल की बाढ़ आने पर, उदगस्सपभावेणं जल के प्रभाव से, सुक्कं सूखे हुए, सिग्धं - स्निग्ध-गीले स्थान को तमिंति प्राप्त करते हैं, आमिसत्थेहिं - मांसार्थी ।
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भावार्थ - आधाकर्म आहार के दोषों को न जानने वाले एवं चातुर्गतिक संसार तथा अष्टविध कर्म के ज्ञान में अकुशल आधाकर्म आहार खाने वाले पुरुष इस प्रकार दुःखी होते हैं जैसे जल की बाढ़ आने पर जल के प्रभाव से सूखे और गीले स्थान पर गई हुई विशाल जातिवाली मछली मांसाहारी ढङ्क और कंक आदि के द्वारा दुःखी की जाती है ।
विवेचन आधाकर्म आहार आदि का सेवन करने वाले साधु-साध्वी चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करते हुए दुःखी होते हैं । इसके लिये वैशालिक ( बड़े रोमों वाली या बड़े शरीर वाली) जाति की मछली का दृष्टान्त दिया गया है।
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● 'सुक्कं सिग्धं तभिंति उ' के स्थान पर "सुकम्मि घातमिंति उ" ऐसा पाठान्तर है। पाठान्तर का अर्थ यह है कि उस पानी अथवा कीचड़ के सूख जाने पर वह मछली - घात (मृत्यु) को प्राप्त हो जाती है।
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