Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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एवमेगे णियागट्ठी, धम्ममाराहगा वयं ।
धर्म के आराधक, अहम्मं - अधर्म को, आवज्जे प्राप्त करते हैं, सव्वज्जुयं - सर्व ऋजुक - सब प्रकार से सरल मार्ग को ।
अदुवा अहम्ममावण्जे, ण ते सव्वज्जुयं वए ॥ २० ॥ कठिन शब्दार्थ - णियागट्ठी - नियाग- अर्थी-मोक्षार्थी, धम्ममारहगा
भावार्थ - इस प्रकार कोई मोक्षार्थी कहते हैं कि आराधना तो दूर रही वे अधर्म को ही प्राप्त करते हैं करते हैं ।
हम धर्म के आराधक हैं परन्तु धर्म की वे सब प्रकार से सरल मार्ग संयम को प्राप्त नहीं
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १
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एवमेगे वियक्काहिं, जो अण्णं पज्जुवासिया ।
अप्पणो य वियक्काहिं, अयमंजुहिं दुम्मइ ॥ २१ ॥
कठिन शब्दार्थ - वियक्काहिं वितर्क के कारण, पज्जुवासिया सेवा करते हैं, अयं - यह, अंजूर्हि - सरल मार्ग से, दुम्मइ - दुर्मति-दुर्बुद्धि ।
भावार्थ- कोई दुर्बुद्धि जीव, पूर्वोक्त विकल्पों के कारण ज्ञानवादी की सेवा नहीं करते हैं, वे उक्त विकल्पों के कारण "यह अज्ञानवाद ही सरल मार्ग है ।" ऐसा मान लेते हैं ।
एवं तक्काई सार्हेता, धम्माम्मे अकोविया ।
दुक्खं ते णाइतुति, सउणी पंजरं जहा ॥ २२ ॥
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कठिन शब्दार्थ - तक्काई तर्कों के द्वारा, साहेंता सिद्ध करते हुए, धम्माधम्मे धर्म अधर्म को, अकोविया - अकोविद नहीं जानने वाले, ण - नहीं, अइतुट्टंति - तोड सकते, सउणी शकुनि - पक्षी, पंजरं पिंजरे को ।
भावार्थ- पूर्वोक्त प्रकार से अपने मत को मोक्षप्रद सिद्ध करते हुए, धर्म तथा अधर्म को न जानने वाले अज्ञानवादी, कर्मबन्धन को नहीं तोड़ सकते हैं जैसे पक्षी पिंजरे को नहीं तोड़ सकता है । विवेचन अन्य मतावलम्बी वादियों के मुख्य रूप से चार भेद बतलाये हैं १. क्रियावादी, २. अक्रियावादी, ३. अज्ञानवादी और ४. विनयवादी ।
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१. क्रियावादी - क्रिया ही प्रधान है, ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार क्रिया को प्रधान मानने वाले क्रियावादी हैं। ये एकान्त क्रिया को ही मानने से मिथ्यावादी हैं । इनके १८० भेद होते हैं। वे इस प्रकार हैं- जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष । इन नव तत्त्वों के स्वतः और परत: के भेद से अठारह भेद होते हैं । इन अठारह को नित्य और अनित्य से गुणा करने पर ३६ भेद हो जाते हैं। इनमें से प्रत्येक को काल, स्वभाव, नियति, ईश्वर और आत्मा की अपेक्षा पांचपांच भेद करने से १८० भेद होते हैं। जैसे कि
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