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आज्ञाका भंग कर दोनों पक्षवाले मुनि एकत्र निवास करे, तो जितने दिन वह एकत्र रहे, उतने दिनोंका तप प्रायश्चित्त तथा छेद प्रायश्चित्त आवे. भावार्थ-प्रायश्चित्तीये, अप्रायश्चित्तीये मुनि एकत्र रहने से लोकमे अप्रतीतिका कारन होता है. एसा हो तो फीर प्रायश्चित्तीये मुनियोंको शुद्धाचारकी आवश्यक्ताही क्यों और दोषोंका प्रायश्चितही क्यों ले ? इत्यादि कारणोंसे एकत्र रहना नहीं कल्पै. अगर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव देखके आचार्य महाराज आज्ञा दे, उस हालतमें कल्पै भी सही. यह ही स्याद्वाद रहस्यका मार्ग है.
(२०) आचार्य महाराजको किसी अन्य ग्लान साधुकी वैयावच्चके लीये किमी साधुकी आवश्यक्ता होनेपर परिहार तप करनेवाले साधुको अन्य ग्राम मुनियोंकी वैयावच्चके लीये जानेका आदेश दीया, उस समय आचार्य महाराज उस मुनिको कहे किहे आर्य ! रहस्ते में चलना और परिहार तप करना यह दो बातों होना कठिन है. वास्ते रहस्तेमें इस तपका छोड देना. इसपर उस साधुको अशक्ति हो तो तप छोड कर जिस दिशामें अपने स्वधर्मी साधु विचरते हो उसी दिशाकी तरफ विहार करना. रहस्तेमें एक रात्रि, दो रात्रिसे ज्यादा रहना नहीं कल्पै. अगर शरीरमें व्याधि हो तो जहांतक व्याधि रहे, वहांतक रहना कल्पै. रोगमुक्त होनेपर पहले के साधु कहे कि-हे आर्य!एक दो रात्रि और ठहरो, इससे पुर्ण खातरी हो जाय. उस हालत में एक दोय रात्रि ठहरना कल्पै. अगर एक दो रात्रिसे अधिक (सुखशीलीयापनासे) ठहरे,तो जितने रोज रहे उतने रोजका तप तथा छेद प्रायश्चित्त होता है. भावार्थ-ग्लान मुनियोंकी वैयावच्चके लीये भेजा हुवा साधु रहस्ते में विहार या उपकार निमित्त ठहर नहीं सके. तथा रोगमुक्त होनेपर भी ज्यादा ठहर नहीं सके. अगर ठहर जावे तो