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आलोचना करते समय मायारहित शुद्ध निर्मल भावोंसे आलोचना करे. भावार्थ- पहला विचार था कि ज्यादा प्रायश्चित्त आने से मेरी मानपूजाकी हानि होगी. फिर आलोचना करते समय आचार्यमहाराज जो स्थानांग सूत्रमें आलोचना करनेवाof गुण और शुद्ध भावसे आलोचना करनेवाला इस लोक और परलोकमें पूजनीय होता है. लोक तारीफ करते है. यावत् मोक्षसुखकी प्राप्ति होती है. ऐसा सुन अपने परिणामको बदला के शुद्ध भावोंसे आलोचना करे.
( ४ ) पहले विचार था कि मायासंयुक्त आलोचना करूंगा, और आलोचना करते समय भी मायासंयुक्त आलोचना करे. बाल, अज्ञानी, भवाभिनन्दी जीवोंका यह लक्षण है.
आलोचना करनेवालोंका भावको आचार्यमहाराज जानके जैसा जिसको प्रायश्चित्त होता हो, वेसा उसे प्रायश्चित्त देवे. सबके लीये एकला ही प्रायश्चित्त नहीं है. एक ही दोषके भिन्न fभन्न परिणामवालोंको भिन्न भिन्न प्रायश्चित्त दीया जाता है.
(१६) इसी माफिक बहुतवार चातुर्मासिक, साधिक चातुर्मासिक, पंच मासिक, साधिक पंच मासिक, प्रायश्चित्त सेवन कीया हो. उसकी दो चोभंगीयों १२ वां सूत्रमें लिखी गई है. यावत् जिस प्रायश्चित्त के योग्य हो, ऐसा प्रायश्चित देना. भावना पूर्ववत्.
( १७ ) जो मुनि चातुर्मासिक, साधिक चातुर्मासिक, पंच मासिक, साधिक पंच मासिक प्रायश्चित्त स्थानको सेवन कर आलोचना ( पूर्ववत् चतुर्भगी से ) करे, उस मुनिको तपकी अन्दर तथा यथायोग्य वैयावश्चमें स्थापन करे. उस तप करते हुवेमें और प्रायश्चित्त सेवन करे, तो उस चालु तपमें प्रायश्चित्त की वृद्धि