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अगर मायासंयुक्त आलोचना करे, तो मूल प्रायश्चितसे एक मास अधिक प्रायश्चित्त दीया जाता है.
(१४) एवं बहुत वचनापेक्षाका भी सूत्र समझना. परन्तु छे मास उपरान्त प्रायश्चित्त नहीं है. भावना पूर्ववत्. चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्रथम एकवचन या बहुवचन आ गया था; परन्तु यहां साधिक चातुर्मासिक सम्बन्धपर सूत्र अलग कहा है.
(१५) किसी मुनिको प्रायश्चित्त दीया है. वह मुनि प्रायश्चित्त तप करते हुवे और भी प्रायश्चित्तका स्थान सेवन करे, उसको प्रायश्चित्त देने की अपेक्षा यह सूत्र कहा जाता है. ___जो मुनि चातुर्मासिक, साधिक चातुर्मासिक, पंचमासिक, साधिक पंचमासिकसे कोई भी प्रायश्चित्त स्थान सेवन कर मायासंयुक्त आलोचना करे. अगर वह द्वेष संघ प्रगट सेवन कीया हो, तो उसको संघ सन्मुख ही प्रायश्चित्त देना चाहिये कि संघको प्रतीत रहै, और दूसरे साधुवोंको इस बातका क्षोभ रहै. तथा जिस प्रायश्चित्तको गुप्तपनेसे सेवन किया हो, संघ उसे न जानता हो, उसे गुप्त आलोचना देनी, जिसे शासनका उडहा न हो. यह गीतार्थोकी गंभीरता है. इसीसे साधु दूसरी दफे द्वेष न लगावेगा. तपश्चर्या करते हुवे साधुका आचार व्यवहार सामाचारी शुद्ध हो, उसे गुरु आज्ञासे वाचना आदिकी साह्यता करना. कारणयाचना देना महान् लाभका कारन है. और तप करनेवाले मुनिका चित्त भी हमेशां स्थिर रहै. अगर जो मुनिकी सामाचारी ठीक न हो उसको द्रव्यादि जाणी गुरु आज्ञा दे तो वाचना देना, नहीं तो न देना. परिहार तपकी पूरतीमें उस साधुकी वैयावच्च करने में अन्य माधुको स्थापन करना, अगर प्रायश्चित्त तप करते और भी प्रायश्चित्त सेवन करे तो यथा तप उस चालु