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जैसा कि आप आगे 'ग्रन्थोल्लेख' के प्रसंग में देखेंगे, यद्यपि उक्त क्षुद्रकबन्ध और बन्धस्वामित्वविचय का उल्लेख धवला में अनेक बार किया गया है, पर वह कहीं भी खण्ड के रूप में नहीं किया गया है। ___ इस प्रकार यद्यपि मूलग्रन्थ और उसको धवला टीका में स्पष्ट रूप से पूरे छह खण्डों के नामों का उल्लेख नहीं देखा जाता है, फिर भी उसके अन्तर्गत उन छह खण्डों के नाम इन्द्रनन्दिश्रुतावतार में इस प्रकार उपलब्ध होते हैं—प्रथम जीवस्थान, दूसरा क्षुल्लकबन्ध, तीसरा बन्धस्वामित्व, चौथा वेदना, पाँचवाँ वर्गणाखण्ड' और छठा महाबन्ध ।'
इस सबको दृष्टि में रखते हुए 'सेठ शिताबराय लक्ष्मीचन्द जैन साहित्योद्धारक फण्ड कार्यालय' से प्रस्तुत परमागम के 'महाबन्ध' खण्ड को छोड़कर शेष पाँच खण्डों को १६ भागों में धवला टीका के साथ 'षटखण्डागम' के नाम से प्रकाशित किया गया है। छठा खण्ड महाबन्ध ७ भागों में 'भारतीय ज्ञानपीठ' द्वारा प्रकाशित हुआ है।
इसके अतिरिक्त मुल ग्रन्थ भी हिन्दी अनवाद के साथ 'आ० शा० जि० जीर्णोद्धार संस्था' फलटण से प्रकाशित हो चुका है।
इस प्रकार उन छह खण्डों में विभक्त प्रस्तुत ग्रन्थ सामान्य से दो भागों में विभक्त रहा दिखता है। कारण इसका यह है कि जिस प्रकार वर्गणा (५) और महाबन्ध (६) इन दो खण्डों के प्रारम्भ में किसी प्रकार का मंगल नहीं किया गया है, उसी प्रकार क्षुल्लकबन्ध (२) और बन्धस्वामित्वविचय (३) के प्रारम्भ में भी मूलग्रन्थकार के द्वारा कोई मंगल नहीं किया गया है। और जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, आचार्य भूतबलि बिना मंगल के ग्रन्थ को प्रारम्भ नहीं करते हैं, इससे यही प्रतीत होता है कि जीवस्थान के प्रारम्भ में भगवान् पुष्पदन्त द्वारा किया गया पंचनमस्कारात्मक मंगल ही क्षुल्लकबन्ध और बन्धस्वामित्वविचय का भी मंगल रहा है। इस प्रकार षट्खण्डागम के अन्तर्गत उन छह भागों में जीवस्थान, क्षुल्लकबन्ध और बन्धस्वामित्वविचय इन तीन खण्डस्वरूप उसका पूर्वभाग तथा वेदना, वर्गणा और महाबन्ध इन तीन खण्डस्वरूप उसका उत्तर भाग रहा है । ग्रन्थकार
प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि हैं । कर्ता अर्थकर्ता, ग्रन्थकर्ता और उत्तरोत्तर-तन्त्रकर्ता के भेद से तीन प्रकार के होते हैं। इनमें प्रथमतः अर्थकर्ता के प्रसंग में विचार करते हुए धवला में कहा गया है कि महावीर निर्वाण के पश्चात् इन्द्रभूति (गौतम),
१. त्रिंशत्सहस्रसूत्रग्रन्थं विरचयदसौ महात्मा ।
तेषां पञ्चानामपि खण्डानां श्रणुत नामानि ।। आद्य जीवस्थानं क्षुल्लकबन्धाह्वयं द्वितीयमतः। बन्धस्वामित्वं भाववेदना-वर्गणाखण्डे ।।
---इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार १४० -४१ २. सूत्राणि षट्सहस्रग्रन्थान्यथ पूर्वसूत्रसहितानि । प्रविरच्य महाबन्धाह्वयं ततः षष्ठक खण्डम् ।।
-इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार १३६ ३. देखिए पु० ७ और पु० ८
षट्झण्डागम : पीठिका / ३
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