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प्रस्तावना.
वे देवियां अपने स्थानको चली गई । मन्त्र-साधनाकी सफलतासे प्रसन्न होकर वे आ. धरसेनके पास पहुंचे और उनके पाद-वन्दना करके विद्या-सिद्धि-सम्बन्धी समस्त वृत्तांत निवेदन किया । आ.धरसेन अपने अभिप्रायकी सिद्धि और समागत साधुओंकी योग्यताको देखकर बहुत प्रसन्न हुए और — बहुत 'अच्छा' कह कर उन्होंने शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभ वारमें ग्रन्थका पढाना प्रारम्भ किया । इस प्रकार क्रमसे व्याख्यान करते हुए आ. धरसेनने आषाढ शुक्ला एकादशीके पूर्वाह्न कालमें ग्रन्थ समाप्त किया। विनय-पूर्वक इन दोनों साधुओंने गुरुसे ग्रन्थका अध्ययन सम्पन्न किया है, यह जानकर भूतजातिके व्यन्तर देवोंने उन दोनोंमेंसे एककी पुष्पावलीसे शंख, तुर्य आदि वादित्रोंको बजाते हुए पूजा की । उसे देखकर धरसेनाचार्यने उसका नाम · भूतबलि' रक्खा । तथा दूसरे साधुकी अस्त-व्यस्त स्थित दन्त-पंक्तिकों उखाड़ कर समीकृत करके उनकी भी भूतोंने बड़े समारोहसे पूजा की । यह देखकर धरसेनाचार्यनें उनका नाम 'पुष्पदन्त ' रक्खा ।
__ अपनी मृत्युको अति सन्निकट जानकर, इन्हें मेरे वियोगसे संक्लेश न हो यह सोचकर और वर्षाकाल समीप देखकर धरसेनाचार्यने उन्हें उसी दिन अपने स्थानको वापिस जानेका आदेश दिया। यद्यपि वे दोनोंही साधु गुरुके चरणोंके सानिध्य में कुछ अधिक समयतक रहना चाहते थे, तथापि 'गुरुके वचनोंका उल्लंघन नहीं करना चाहिए ' ऐसा विचार कर वे उसी दिन वहांसे चल दिये और अंकलेश्वर ( गुजरात ) में आकर उन्होंने वर्षाकाल बिताया । वर्षाकाल व्यतीतकर पुष्पदन्त आचार्य तो अपने भानजे जिनपालित के साथ वनवास देशको चले गये और भूतबलि भट्टारक भी द्रमिल देशको चले गये ।।
तदनंतर पुष्पदन्त आचार्यने जिनपालितको दीक्षा देकर, गुणस्थानादि वीस-प्ररूपणा-गर्भित सत्प्ररूपणाके सूत्रोंकी रचना की और जिनपालितको पढ़ाकर उन्हें भूतबलि आचार्यके पास भेजा । उन्होंने जिनपालितके पास वीस-प्ररूपणा-गर्भित सत्प्ररूपणाके सूत्र देखे और उन्हींसे यह जानकर कि पुष्पदन्त आचार्य अल्पायु हैं, अतएव महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका विच्छेद न हो जाय, यह विचार कर भूतबलिने द्रव्यप्रमाणानुगमको आदि लेकर आगेके ग्रन्थकी रचना की। जब ग्रन्थ-रचना पुस्तकारूढ हो चुकी तब ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीके दिन भूतबलि आचार्यने चतुर्विध संघके साथ बड़े समारोहसे उस ग्रन्थकी पूजा की । तभीसे यह तिथि श्रुतपंचमीके नामसे प्रसिद्ध हुई । और इस दिन आज तक जैन लोग बराबर श्रुत-पूजन करते हुए चले आ रहे हैं। इसके पश्चात् भूतबलिने अपने द्वारा रचे हुए इस पुस्तकारूढ षट्खण्डरूप आगमको जिनपालितके हाथ आचार्य पुष्पदन्तके पास भेजा । वे इस षटखण्डागमको देखकर और अपनेद्वारा प्रारम्भ किये कार्यको भलीभांति सम्पन्न हुआ जानकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने भी इस सिद्धान्त ग्रन्थकी चतुर्विध संघके साथ पूजा की।
१ ज्येष्ठसितपक्षपञ्चम्यां चातुर्वर्ण्यसंघसमवेतः । तत्पुस्तकोपकरणय॑धात् क्रियापूर्वक पूजाम् ॥१४३।। श्रतपञ्चमीति तेन प्रख्याति तिथिरयं परामाप । अद्यापि येन तस्यां श्रुतपूजां कुर्वते जैनाः ॥ १४४ ।।
( इन्द्रनन्दि श्रुतावतार )
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