Book Title: Shatkhandagam
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, 
Publisher: Walchand Devchand Shah Faltan

Previous | Next

Page 14
________________ प्रस्तावना भ० महावीरके निर्वाणके पश्चात् गौतम, सुधर्मा और जम्बूस्वामी ये तीनों पहले समस्त श्रुतके धारक और पीछे केवलज्ञानके धारक केवली हुए । इनका काल ६२ वर्ष है । पश्चात् १०० वर्षमे १ विष्णु, २ नन्दि मित्र, ३ अपराजित, ४ गोवर्धन और ५ भद्रबाहु ये पांच आचार्य पूर्ण द्वादशाङ्गके वेत्ता श्रुतकेवली हुए। तदनंतर ग्यारह अङ्ग और दश पूर्वोके वेत्ता ये ग्यारह आचार्य हुए -- १ विशाखाचार्य, २ प्रोष्ठिल, ३ क्षत्रिय, ४ जय, ५ नाग, ६ सिद्धार्थ, ७ धृतिसेन, ८ विजय, ९ बुद्धिल, १० गंगदेव और ११ धर्मसेन । इनका काल १८३ वर्ष है । तत्पश्चात् १ नक्षत्र, २ जयपाल, ३ पाण्डु, ४ ध्रुवसेन और ५ कंस ये पांच आचार्य ग्यारह अङ्गोंके धारक हुए । इनका काल २२० वर्ष है । तदनन्तर १ सुभद्र, २ यशोभद्र, ३ यशोबाहु और ४ लोहार्य ये चार आचार्य एकमात्र आचाराङ्गके धारक हुए । इनका समय ११८ वर्ष है। इसके पश्चात् अङ्ग और पूर्ववेत्ताओंकी परम्परा समाप्त हो गई और सभी अङ्गो और पूर्वोको एकदेशका ज्ञान आचार्य परम्परासे धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ। ये दूसरे अग्रायणी पूर्वके अन्तर्गत चौथे महाकर्मप्रकृतिप्राभृत विशिष्ट ज्ञात थे । श्रुतावतारकी यह परम्परा धवला टीकाके रचयिता स्वामी आ० वीरसेन और इन्द्रनन्दिके अनुसार है। नन्दि संघकी जो प्राकृत पट्टावली उपलब्ध है, उसके अनुसार भी श्रुतावतारका यही क्रम है । केवल आचार्यों के कुछ नामोंमें अन्तर है । फिरभी मोटे तौर पर उपर्युक्त कालगणनाके अनुसार भ० महावीर के निर्वाण से ६२ + १०० + १८३ + २२०+११८-६८३ वर्षों के व्यतीत होने पर आचार्य धरसेन हुए, ऐसा स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है । नन्दि संघकी पट्टावलीके अनुसार धरसेनाचार्यका काल वी. नि. से ६१४ वर्ष पश्चात् पडता है। बृहट्टिप्पणिका- जो कि एक श्वेताम्बर विद्वान्की लिखी हुई है ओर जो बहुत प्रामाणिक मानी जाती है- धरसेनका काल वी.नि. से ६०० वर्ष बाद पडता है । ___ आ. धरसेन काठियावाडमें स्थित गिरिनगर (गिरनार पर्वत) की चान्द्र गुफामें रहते थे । जब वे बहुत वृद्ध हो गये और अपना जीवन अत्यल्प अवशिष्ट देखा, तब उन्हें यह चिन्ता हुई कि अवसर्पिणी कालके प्रभावसे श्रुतज्ञानका दिन पर दिन ह्रास होता जाता है। इस समय मुझे जो कुछ श्रुत प्राप्त है, उतना भी आज किसीको नहीं है, यदि मैं अपना श्रुत दूसरेको नहीं संभलवा सका, तो यह भी मेरे ही साथ समाप्त हो जायगा । इस प्रकारकी चिन्तासे और श्रुत-रक्षणके १ योनिप्राभूतं वीरात् ६०० धारसेनम् '। ( बृहट्टिप्पणिका जै. सा. सं. १, २ परिशिष्ट ) अर्थात आ. धरसेनने वी. नि. के ६०० वर्ष बाद योनिप्राभूतकी रचना की। योनिप्राभूतका की रचना की। योनिप्राभृतका उल्लेख धवलाकारने भी किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 966